जून 30 दयाल सिंह कॉलेज वेबिनार वक्तव्य सारांश -
कोरोना महाप्रकोप और हिंदी की प्रासंगिकता -अशोक ओझा
वक्तव्य सारांश
आज पूरा विश्व कोरोना की चपेट में है। विकसित और विकासशील देशों में महामारी का भीषण प्रकोप जीवन-मरण का प्रश्न बन चुका है । शिक्षा संस्थान विगत छह माह से बंद पड़े हैं।विद्यार्थी अपनी कक्षा में जाने से वंचित हैं और अध्यापक अपने पाठ्य क्रम को पूरा करने की चिंता में हैं। ऐसी स्थिति में साहित्यकारों और शिक्षकों के समक्ष आधुनिक प्राद्योगिकी जगत ने कुछ साधन प्रदान किए हैं, जिनका प्रयोग शिक्षा और साहित्य की प्रगति और समृद्धि के लिए किया जा रहा है।इन साधनों का कितना लाभ मिलेगा यह तो आने वाला समय ही बता सकता है, क्यों कि प्राद्योगिकी का शिक्षा के लिए व्यापक प्रयोग विश्व में पहली बार हो रहा है ।
वक्तव्य के प्रमुख अंश
इन पक्तियों का लेखक भारत और अमेरिका में हिंदी पत्रकारिता और शिक्षण से जुड़ा रहा है । आज हिंदी एक अंतर्राष्ट्रीय विश्व भाषा के रुप में स्थापित हो चुकी है।हिन्दी लेखक, कवि, नाटककार, फिल्मकार अपनी रचनाओं के माध्यमसे पाठकों और दर्शकों तक पहुँचते रहे हैं। गोष्ठियों में श्रोताओं और दर्शकों से रुबरु हो कर लेखक और कवि अपनी रचनाओं की प्रतिक्रिया अविलम्ब प्राप्त करता हैं। उनकी रचनाएँ पत्र-पत्रिकाओं और टेलेविज़न के जरिए लोगों तक पहुँचती हैं। लेकिन आज ये सभी साधन ऑनलाइन तक सिमट गए हैं, लेकिन उसी के साथ उनकी पहुँच दुनिया के कोने कोने में बैठे भाषा प्रेमियों तक हो पा रही है। कोरोना महामारी की मजबूरी के कारण 'ऑनलाइन' साधनों पर निर्भरता बढ़ी है, लेकिन क्या इस निर्भरता को शिक्षा और साहित्य के विस्तार में नए आयाम के रूप में बदला जा सकता है?
शायद हाँ। मैं अपने वक्तव्य में प्रद्योगिकी द्वारा सुलभ कराये गए ऑनलाइन साधनों जैसे, ज़ूम, गूगल हैंगऑउट और फेस बुक जैसे सामाजिक माध्यमों की उपयोगिता और उनकी सीमाओं पर प्रकाश डालते हुए, यह बताना चाहूंगा कि उचित ज्ञान और जानकारियों के प्रचार प्रसार के लिए इन साधनों का सही इस्तेमाल किया जाना चाहिए। ऑनलाइन साधनों का दुरुपयोग उल-जलूल प्रचार के लिए नहीं होना चाहिए, जैसा कि व्हाट्स अप के जरिए हो रहा है।
मैं ज्ञान के प्रचार और विद्यार्थियों के साथ सार्थक संपर्क स्थापित करने के लिए प्राद्योगिकी के उचित प्रयोग पर भी प्रकाश डालूंगा, जिससे यह प्रमाणित हो सके कि शिक्षा और सूचनाओं का प्रचार क्लास रुम या गोष्ठियों की चाहर दीवारियों से बाहर निकल कर पूरे विश्व पटल पर हो सकता है जिससे साहित्य और भाषा शिक्षण की प्रगति तेजी से और विश्व स्तर पर हो सकती हैं। अगर ऐसा हो सका तो हम कोरोना महा प्रकोप से उत्पन्न कठिनाइयों को सुविधाओं में परिवर्तित कर सकते हैं।