हिंदी शिक्षार्थियों को क्या चाहिए? भाग 1

  हिंदी शिक्षार्थियों को क्या चाहिए?

-अशोक ओझा, न्यू जर्सी, अमेरिका ​

'अमेरिका का हाल' यूट्यूब श्रृंखला की इस कड़ी में आइए नज़र डालते हैं हिंदी शिक्षण के कुछ आधुनिक तरीकों पर, जिनका उपयोग मैंने और मेरे शिक्षकों के समूह ने पिछले एक दशक से किया है। इन तरीकों के अत्यंत उत्साहजनक परिणाम सामने आये। इन तरीकों में मैं सबसे प्रमुख हैं  ‘अमेरिकन कौंसिल ऑन द टीचिंग ऑफ़ फ़ॉरेन लैंग्वेजेज’ के मापदंड, जिनका पालन कर हमने हिंदी शिक्षार्थियों को, उनके हिंदी ज्ञान की पृष्ठभूमि में, विभिन्न श्रेणियों में वर्गीकृत करना सीखा, उनकी रूचि के अनुरूप विषय चुनना सीखा, और भाषा-शिक्षण के लक्ष्य निर्धारित कर उन्हें हासिल करने के लिए विविध किस्म के सांस्कृतिक अनुभवों से भरपूर रोचक गतिविधियां तैयार करना सीखा। मैं कह सकता हूँ कि इन तरीकों का प्रयोग कर आज का हिंदी शिक्षण अमेरिका में पढ़ाई जाने वाली अन्य गैर-अंग्रेजी भाषाओँ की बराबरी कर सकती है। इक्कीसवीं सदी की ज़रूरतों के मुताबिक भाषा ज्ञान के आधार पर योग्य नागरिक तैयार किये जा सकते हैं, जो अपने संस्कृति से न केवल जुड़े रहेंगे, बल्कि मूल संस्कृति के प्रतिनिधि के रूप में आत्म-गौरव भी महसूस करेंगे।  

जी हाँ, मैं प्राथमिक, माध्यमिक और उच्च विद्यालय में पढ़ने वाले विद्यार्थियों की बात कर रहा हूँ, जो अधिकाधिक संख्या में हमारे कार्यक्रमों में शामिल होते हैं और हमारी कक्षाओं से भागते नहीं। उनके माता पिता कहते हैं: 'सामान्यतया, मेरे बच्चे स्कूल जाने से कतराते हैं, लेकिन ‘युवा हिंदी संस्थान’ और ‘हिंदी संगम फॉउंडेशन’ के हिंदी कार्यक्रमों में प्रतिदिन शामिल होने के लिए बेताब रहते हैं, सुबह जल्दी तैयार होते हैं, और शिविर में पहुँचने के लिए जल्दी मचाते हैं। मैंने जिन दो संस्थाओं का जिक्र किया उनके शिक्षण कार्यक्रम अब तक ग्रीष्म काल की छुट्टियों में आयोजित होते रहे हैं, लेकिन बदलते समय में हम उन्हें 'ऑनलाइन' कर रहे हैं। विशेष जानकारी हमारे वेब साइट पर प्राप्त करें:

https://21stcenturyhindi.com/hindi-online-program

हमारा पहला ‘ऑनलाइन’ कार्यक्रम गत १० जुलाई को समाप्त हुआ, जिसकी सफलता के बाद अब हम सेमेस्टर के आधार पर 'फॉल' और 'स्प्रिंग' कार्यक्रमों की  तैयारी करने में लगे हैं।  

हालाँकि भाषा शिक्षण के जिन सिद्धांतों की चर्चा इस लेख में की गयी है, वे मूलतः भारत के बाहर, ख़ास तौर पर, अमेरिका में पैदा हुए और पल बढ़ रहे 'हेरिटिज' बच्चों की ज़रूरतों को ध्यान में रख कर बनाए गए हैं, लेकिन मेरा विश्वास है कि इन सिद्धांतों में स्थानीय परिस्थितियों के अनुकूल परिवर्तन कर दुनिया के किसी भी देश में, यहाँ तक कि भारत के अहिंदी भाषी इलाक़ों में भी उपयोग में लाया जा सकता है, जिसके अपेक्षित परिणाम होंगे। 

तीन श्रेणियाँ और पाँच ‘सी’ 

इक्कीसवीं सदी के विद्यार्थियों को भाषा शिक्षण के लिए आधुनिक तरीके अपनाते समय शिक्षक अपने आप से पूछ सकते हैं कि विद्यार्थियों के पढ़ने के  उद्देश्य क्या थे और उन्होंने क्या सीखा? आज के सिमटते विश्व में भाषा शिक्षण का महत्वपूर्ण उद्देश्य होना चाहिए शिक्षार्थियों को विश्व नागरिक बनाना । यानी उन्हें वास्तविक जीवन की यथार्थता से अवगत कराना । ‘अमेरिकन कौंसिल ऑन द टीचिंग ऑफ़ फ़ॉरेन लैंग्वेजेज’ (ACTFL) ने भाषा-प्रवीणता को प्रारम्भिक या नौसिखुआ (नोविस), माध्यमिक (इंटरमीडिएट), अग्रिम (एडवांस) और श्रेष्ठ (सुपीरियर) श्रेणियों में विभाजित किया है। कौंसिल ने विश्व भाषाओं की शिक्षा के लिए पांच ‘सी’ का निर्धारण किया है, जिनका समावेश भाषा पाठ्यक्रम में होना चाहिए। प्रथम ‘सी’ यानी कम्युनिकेशन (संवाद) के अंतर्गत भाषा शिक्षार्थियों को तीन प्रकार की गतिविधियों में शामिल करना चाहिए-परिचयात्मक या सूचनात्मक (इंटरप्रेटिव) ; पारस्परिक (इंटरपर्सनल) संवाद और प्रस्तुतीकरण (प्रेजेंटेशनल)। भाषा-विद्यार्थियों को शिक्षित करने की बात जैसे ही चलती है, उसे कल्चर- यानी संस्कृति के तीन पायों से जोड़ कर देखा जाता है। ये तीन पाए हैं: सांस्कृतिक प्रतीक (प्रोडक्ट) जैसे दीवाली के दीये, सांस्कृतिक प्रथाएं (प्रैक्टिसेज), और परिप्रेक्ष्य (पर्सपेक्टिव)।  

शिक्षार्थी को वाक्य और शब्दावली सीखते समय विषय वस्तु के सांस्कृतिक प्रतीक (प्रोडक्ट), सांस्कृतिक रीति- रिवाज़ (प्रैक्टिसेज) और सांस्कृतिक सन्दर्भों (पर्सपेक्टिव) की समझ होनी चाहिए। हम देख सकते हैं कि हमारा हर सांस्कृतिक कार्य इन तीनों पायों पर टिका हैं। भाषा शिक्षक का कर्तव्य है कि उसके पाठ्यक्रम में इन सांस्कृतिक पायों को समुचित समावेश करे, ताकि विद्यार्थी सामजिक रीति-रिवाजों को समझते समय उसके सांस्कृतिक सन्दर्भ को भी सीखें। हमारे कार्यक्रमों में नाटक, नृत्य, अभिनय या रोल प्ले आदि अनेक गतिविधियों के ज़रिए शिक्षार्थियों को सांस्कृतिक प्रतीक (प्रोडक्ट), प्रथाएं (प्रैक्टिसेज), और परिप्रेक्ष्य (पर्सपेक्टिव) से अवगत कराया जाता है। यह ज़रूरी है कि भाषा शिक्षक कक्षा में जाने के पूर्व विषय वस्तु के विभिन्न सन्दर्भों से पूरी तरह परिचित हो। तृतीय ‘सी’-सम्बन्ध (कनेक्शन)-केअंतर्गत विषय वस्तु का सम्बन्ध इतिहास, भूगोल जैसे अन्य विधाओं से स्थापित करना चाहिए। चौथे ‘सी’-तुलनात्मक (कम्पेरिज़न)-के तहत विषय वस्तु का गहन अध्ययन करते समय शिक्षार्थी को उसकी तुलना अपने वर्तमान जीवन की संस्कृति और निजी अनुभव से करने में सक्षम होना चाहिए। यह उन विद्यार्थियों पर विशेष तौर पर लागू होता है, जो गैर भारतीय समाज में पले- बढ़े हैं। पांचवा ‘सी’-समुदाय (कम्युनिटीज)-की आवश्यकता इसलिए है कि विद्यार्थी अपने भाषा ज्ञान को कक्षा के बाहर ले जाकर स्थानीय समाज से जोड़े जहाँ मूल संस्कृति के सदस्य रहते हैं, क्यों कि विश्व भाषा सीखने का लक्ष्य यह है कि विद्यार्थी मूल संस्कृति के सदस्यों के साथ सार्थक संवाद स्थापित करने में सक्षम हो सकें। 

 

अमेरिका में ग़ैर-अंग्रेज़ी यानी किसी भी विदेशी भाषा के शिक्षण के लिए ‘अमेरिकन कौंसिल ऑन द टीचिंग ऑफ़ फ़ॉरेन लैंग्वेजेज’ (ACTFL) द्वारा निर्धारित प्रवीणता मापदंडों का प्रयोग किया जाता है। हिंदी अमेरिका में एक विदेशी भाषा है, लेकिन जब हम भारतीय मूल के विद्यार्थियों को हिंदी शिक्षा देते हैं, तब वह अनेक विरासत के विद्यार्थियों के लिए, जो अपने घर में हिंदी का प्रयोग करते हैं, मातृभाषा या स्वदेशी (‘नेटिव’) बन जाती है । ‘युवा हिंदी संस्थान’ और ‘हिंदी संगम फॉउंडेशन’ अपने पाठ्यक्रमों में अनेक मार्ग दर्शक पैमानों का प्रयोग करती आ रही हैं जिन्हें अमेरिका में विदेशी भाषा अध्यापन के लिए अपनाया गया है। ये मार्गदर्शिकाएँ किसी भी विदेशी भाषा या हिंदी के शिक्षण के लिए उपयोगी हैं। यहाँ यह बता देना उपयोगी होगा कि जब भी विद्यार्थी भाषा की मूल संस्कृति से जुड़े दैनिक रहन सहन की जानकारी प्राप्त करता है तो उस जानकारी को अपने निजी अनुभवों से तुलना ज़रूर करता है। 

यह सही है कि प्रारम्भिक या नौसिखुए भाषा-शिक्षार्थी (नोविस) के पास अपनी बात कहने के लिए सीमित शब्द-ज्ञान और संप्रेषण क्षमता होती है । प्राथमिक और माध्यमिक स्कूल का छात्र जो कि प्रारम्भिक श्रेणी में है, शब्द और वाक्यों को रट-रट कर याद करता है। माध्यमिक स्तर का विद्यार्थी (इंटरमीडिएट) कुछ परिचित विषयों पर अपने विचारों को वाक्यों में व्यक्त करता है, जो कि जरूरी नहीं कि पूरी तरह शुद्ध हों। ये विद्यार्थी जिन विषयों का अध्ययन कर रहे हैं,उनके सम्बन्ध में पूर्ण वाक्यों में बातचीत या सवाल-जवाब कर सकते हैं। प्रवीणता का सही मापदंड मूल संस्कृति, ‘टारगेट लैंग्वेज’ के वक़्ता से बात करना होगा। माध्यमिक श्रेणी (इंटरमीडिएट) तक पहुँचते पहुंचते विद्यार्थियों को दिनचर्या के विषयों पर  खुल कर बात चीत करने के लिए प्रोत्साहित करना चाहिए। यहाँ मैं यह स्पष्ट करना चाहूँगा कि प्रारंभिक या नौसिखुए (नोविस), माध्यमिक (इंटरमीडिएट) और अग्रिम (एडवांस) विद्यार्थियों की ये श्रेणियाँ उन छात्र-छात्राओं के लिए उपयुक्त हैं जो या तो ग़ैर-भारतीय परिवेश से आए हैं, अथवा, भारतीय मूल के होते हुए भी भारत से बाहर पैदा हुए और बड़े हो रहे हैं, उन्हें हिंदी बोलने, लिखने, और पढ़ने का अवसर नहीं मिला। वे अंग्रेज़ी माध्यम के स्कूल में पढ़ने जाते हैं,जहाँ हिंदी की विधिवत शिक्षा नहीं दी जाती। अमरीका में उन्हें विरासत (हेरिटेज) और ग़ैर-विरासत (नॉन-हेरिटेज) श्रेणी में विभाजित किया गया है। भारत में हिंदी सीख रहे अन्य देशों के ग़ैर-भारतीय मूल के विद्यार्थियों को इस वर्गीकरण में शामिल करना उचित होगा। उदाहरण के लिए यदि हम प्रारंभिक स्तर के विद्यार्थी (नोविस) को यह सिखाएं कि वह अपने बारे में पांच बातें कहे तो हर विद्यार्थी अपने बारे में सोचेगा। हम सोचें कि जो बच्चे एक कमरे के घर में रहते हैं, वे क्या कहना चाहेंगे, और जो बच्चे चार कमरे के घर में रहते हैं वे अपनी बात कैसे कहेंगे। शिक्षक के रूप में हम परोक्ष रूप से गरीब और अमीर के रहन सहन के साथ अपने शिक्षार्थियों को परिचित करा रहे हैं, लेकिन यदि चार कमरे के मकान में रहने वाला विद्यार्थी एक कमरे के मकान में रहने वाले विद्यार्थी से परिचित होता है, उसके साथ सद्भावना पूर्ण वातावरण में मिलकर बड़े और छोटे घरों के बारे में क्या, क्यों, कैसे जैसे प्रश्नों के साथ आपस में बातचीत कर सकता है, तो निश्चित ही हम ऐसा विद्यार्थी वर्ग पैदा कर रहे होंगे, जो कि सामजिक विषमताओं के प्रति न केवल जागरूक होगा, वरन, उस विषय पर अपनी सोच को विस्तृत करेगा। इन सबके लिए उसे भाषा चिंतन, परस्पर वैचारिक आदान-प्रदान और चर्चा करने की क्षमता पैदा करनी होगी। इस प्रक्रिया में उसकी भाषा प्रवीणता आगे बढ़ेगी। 

इस प्रकार हम देखते हैं कि भाषा शिक्षण ऐसी गतिविधि है जो किसी समाज या देश में राजनीतिक ढांचे को निरंतर ​गढ़ती रहती  है। हम अपनी अपनी दृष्टि से सामाजिक गतिविधियों का विश्लेषण करते हैं। भाषा इस प्रयास को स्वर देती है। और भाषा-शिक्षार्थी उनकी व्याख्या और विश्लेषण करते हुए उसके विभिन्न आयामों को सीखता है।

 

Ashok OjhaComment