क्या अमेरिका चीन-भारत संघर्ष में कूदेगा ?

-अशोक ओझा  

जो लोग भारत-चीन झगड़े में अमेरिकी हस्तक्षेप की आस लगाए बैठे हैं, उन्हें यह भूलना नहीं चाहिए कि अमेरिका या कोई भी विश्व ताक़त सबसे पहले अपना राष्ट्रहित देखता है। क्या अमेरिका दक्षिण एशिया में अपना प्रभाव ज़माने का मौक़ा देख रहा है?अफ़ग़ानिस्तान में डेढ़ दशक तक उलझे रहने के बाद भी उसे क्या हासिल हुआ? ओसामा बिन लादेन का सफ़ाया करने के बाद अमेरिका पाकिस्तान से यह सुनने को मजबूर है कि ओसामा एक ‘शहीद’ था । क्या पाकिस्तान को करोड़ों डॉलर की मदद अमेरिका ने इसी दिन के लिए दी थी? 

भारत-चीन विवाद में बिचौलिए की भूमिका निभाने का निमंत्रण अमेरिका को नहीं मिला। अच्छे रिश्ते का आधार वाणिज्य है। भारत ने पश्चिमी देशों और यहाँ तक कि चीन से भी वाणिज्य सम्बंध मज़बूत करने की बहुत कोशिश की है। लेकिन उसके वांछित उद्देश्य पूरे ना हो सके । स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद से ही यदि भारत अपना राष्ट्रहित सर्वोपरि रख कर अपनी विदेश नीति निर्धारित करता तो शायद आज परिदृश्य कुछ और ही होता! अपने पड़ोसियों को नाराज कर अपनी स्थिति मज़बूत रखना आसान नहीं, यह कार्य नौकरशाह नहीं, दूरदर्शी राजनेता ही कर सकता है। भारतीय विदेश नीति दुनिया के ताक़तवर राष्ट्रों के साथ समान दूरी बनाए रखने की रही, जो आज भी चल रही है, लेकिन एशियाई ताक़त बनने की दिशा में भारत को क्या करना चाहिए, इस पर गंभीरता से चिंतन नहीं हुआ। 

भारत की सबसे बड़ी ताक़त उसकी एकता है। किसी भी राष्ट्र की ताक़त उसके लोग होते हैं, नेता नहीं। भारत ने अपने मानव संसाधन की दिशा में बहुत देर से सोचा, सोचा भी तो बहुत कम  कार्य किया। भारतीय प्रशासक यह नहीं समझ सके कि सामान्य जनता की भलाई में ही राष्ट्हित है, उसी में सबका कल्याण है।

कोरोना महाप्रकोप के इस दौर में चीन यह समझने की भूल कर रहा है कि उसकी विस्तारवादी नीतियां सफल होंगी, वह विश्व की ताक़त बनेगा। वियतनाम, फ़िलीपिन्स , जापान आदि देशों को दुश्मन बना कर वह एशिया की ताक़त नहीं बन सकता है। इधर भारत पाकिस्तान नीति में सेना की सक्रियता मजबूत किए बिना, अफगानिस्तान में अपनी उपस्थिति मज़बूत किए बिना  एशिया की ताक़त नहीं बन सकता। जापान, ऑस्ट्रेलिया, और अमेरिका, इन सबको अपने पक्ष में लाने की कला भारत को एक हद तक अन्तर्राष्ट्रीय शक्ति बना सकती है। लेकिन देश को आगे ले जाने के लिए उतना ही काफ़ी नहीं । 

चीन की शोषित और प्रताड़ित जनता के साथ सहानुभूति के दो शब्द भी आवश्यक हैं। यदि माओ ने सर्वहारा की क्रांति को सफल बनाया तो लाखों-करोड़ों लोगों को भूखमरी से जूझने के लिए छोड़ भी दिया। ऐसी क्रांति किस काम की? इसीलिए अति राष्ट्रवादी होने के बावजूद आज ताइवान फल फूल रहा है, दक्षिण कोरिया आधुनिकता, और तरक्की की ओर बढ़ हैं, जब कि अपने अस्तित्व के लिए चीन पर निर्भर रहने वाले देश उत्तर कोरिया और कम्बोडिया तानाशाही और एक पक्षीय प्रशासन के कोल्हू में पीस रहे हैं।  द्वितीय विश्व युद्ध में अनगिनत नागरिकों की मौत और विनाश के बावजूद जापान और जर्मनी अपनी राष्ट्रिय अस्मिता को बरक़रार रखते हुए दो दशकों के भीतर विश्व के अग्रणी प्रगतिशील राष्ट्र बने । एक दलीय तानाशाही के चंगुल में अपने नागरिकों को फंसा कर भौतिकता का सुख प्रदान करने वाला चीन विश्व शक्ति बनने के अपने लक्ष्य को कैसे पा सकेगा, यह तो भविष्य ही बताएगा।  

इतिहास हमेशा सत्य के तर्क पर नहीं बनता। मंगोलियाई आक्रमणकारियों ने बहशी ताकत के बल पर चीन पर सदियों शासन किया, चीन की दीवार भी चीन की रक्षा न कर सकी। ब्रिटेन की दमनकारी नीतियों ने भारत को सदियों तक गुलाम बनाया, अफीम की तस्करी  के बल पर ब्रिटिश शासकों ने चीन को काबू में करना चाहा, यूरोप के शासकों ने पूरे विश्व में दमनकारी नीतियों के बल पर ही अफ्रीका और एशिया के संपन्न राष्ट्रों को गुलाम बनाया, खनिज में समृद्ध अफ़्रीकी देश कांगो उपनिवेशवाद के विरुद्ध सच्चाई उगलने का मुआवज़ा आज भी भुगत रहा है, जहाँ से खनिज का दोहन कर अमीर राष्ट्र अमीर बने। 

 सहयोग और परस्पर मेल जोल के आधार पर प्रगति की ओर बढ़ने की नीति अपनाने के बजाय चीन कोरोना महामारी के दौर में भारत को दबाना चाहता है,यह सोच कर कि भारत की कमज़ोरी चीन की ताक़त बन जाएगी। विस्तारवाद  की नीति सैकड़ों साल पुरानी हो चुकी है, ठीक है, उससे पश्चिमी ताक़तों ने कभी लाभ उठाया, लेकिन उस युग का अंत हो चुका है। इक्कीसवीं सदी आर्थिक विकास की सदी होनी चाहिए । लेकिन कैसे?

क्या 2036 तक सत्ता में रह कर पुतिन रूस को दुनिया की बड़ी ताक़त बना सकेंगे? क्या झूठ और ‘श्वेत प्रमुखता’ (वाइट सुप्रेमेसी) के भ्रम में ट्रम्प अमेरिका को महान बना सकेंगे? क्या लोकतंत्र पर ताला लगा कर सी पींग चीन के नागरिकों को अमीरी की तरफ़ धकेल सकेंगे? भारत की आज़ादी के बाद गलत ब्रिटिश नीतियों ने भारत को क्या दिया? पाकिस्तान और तिब्बत?लेकिन उससे उलझने के सीमित साधन! भारत अपनी भलमनसाहत को साबित करने में लगा रहा, चीन को संयुक्त राष्ट्र की सदस्यता से लेकर अनेक अंतर्राष्ट्रीय मुद्दों पर मध्यस्थता करने वाला देश, भारत, अपने लोगों को शिक्षा, भोजन, रोजगार और आवास देने में विफल रहा। भारत की लोकतांत्रिक सरकारें 80 सालों में आम लोगों को पीने का पानी और शौचालय देने में विफल रहीं, अपनी राष्ट्रीय सीमा रेखा खींचने का कार्य, उसकी सुरक्षा तक नहीं कर सकीं, बावजूद इसके कि भारत दुनिया की पाँचवी सर्वाधिक ताक़तवर सेना खड़ी करने में समर्थ हुआ है । इसका क्या अर्थ लगाया जाए कि आज भारत के पास विदेशी मुद्रा का भंडार है, अपार युवा शक्ति है! अगर कुछ नहीं है तो राष्ट्र को आगे बढ़ने की दृढ़ शक्ति! यदि सड़ी गली नौकरशाही वातानुकूलित कमरों से बाहर निकल कर आम लोगों की तकलीफ़ें नहीं समझ सकती, सरकारें देश  को एक भाषा ना दे कर आम लोगों को भाषा के नाम पर लड़ने के लिए छोड़ दे, ऐसे तंत्र को दुरुस्त करने का काम लोकतंत्र में हो सकता है? शायद हाँ ।  

भारत का सौभाग्य है कि लोकतंत्र वहाँ फलफूल रहा है। लेकिन वास्तविकता को नज़रंदाज़ नहीं किया जा सकता । भारत दो मोर्चों  पर- कोरोना और अपनी सीमा पर लड़ने को मजबूर है। चीनी सेना भारत की  वास्तविक नियंत्रण रेखा में घुस आयी है।गलवान घाटी और पैंगोंग झील के इलाक़े चीन की पहुँच के भीतर  कैसे हो गए, क्या भारत 75 वर्षों में अपनी सीमा रेखा भी पहचान ना सका? चीन वापस जाना नहीं चाहता । लद्दाख में चीनी घुसपैठ के बाद भारत को पश्चिमी खेमे में जाने के सिवा कोई चारा नहीं। चीन की चाल एक बार फिर विश्व को अलग अलग खेमे में बांटेगी। भारत ने इतिहास से सबक़ लेने में चूक की। यही भूल कारगिल में हुई थी, उसे बचाने अमेरिका नहीं आया, उसी के सैनिकों को पहले क़ुरबानी देनी पड़ी। 

जर्मनी से अपनी सेनाएं वापस बुलाने वाला अमेरिका क्या उन्हें भारत-चीन सीमा पर तैनात करेगा? बिलकुल नहीं! यदि भारतीय शासक इस गलतफहमी में हों तो वे दुबारा सोचें। ऑस्ट्रेलिया, जापान, अमेरिका के गुट में शामिल होने का अर्थ यही है कि एशियाई देश अपनी उपलब्धियों को फिर से गवाने जा रहे हैं-शीत युद्ध के नए दौर में या तो इधर या उधर जाकर! काश! चीन यह समझ जाता कि विश्व ताकत बनने की उसकी महत्वाकांक्षा पड़ोसी देशों के साथ दुश्मनी नहीं, दोस्ती के  आधार पर ही सम्भव है।  

द्वितीय विश्व युद्ध के बाद कोरिया में चीन के हाथों और वियतनाम में फटेहाल वियतनामियों के हाथों अमेरिका को जिस पराजय का सामना करना पड़ा, उसकी गूंज आज भी सुनाई पड़ती है। यही नहीं, आज अपने देश के भीतर श्वेत-अश्वेत की खाई को पाटने के लिए अमेरिका की पहली प्राथमिकता होनी चाहिए, जिसके लिए यहाँ का लोकतंत्र चिल्ला रहा है। दुनिया भर में प्राथमिकताएं लोगों के जीवन को बेहतर बनाने की होनी चाहिए, लेकिन दुर्भाग्य वश मानव जाति वेनेजुएला, सीरिया, यमन, और अफ्रीका में मानव अधिकारों को कुचलने के नए रास्ते बनाने के लिए ज्यादा कुछ नहीं कर सकी।

हालात पेचीदे हैं। भारत के अधिकांश पड़ोसी आर्थिक मदद के लिए चीन का मुँह ताक रहे हैं।  ऐसी स्थिति में अमेरिका ही अकेला देश है जो दक्षिण एशिया में अपना प्रभुत्व बढ़ाने की रणनीति पर कार्य करेगा। अफगानिस्तान, मध्य पूर्व में उसे जो भी करना था, कर चुका, अगला पड़वा है दक्षिण एशिया। कमोबेश भारत के सामने विश्व के शतरंज पर अनेक विकल्प हैं-क्या वह जापान, अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया के गुट में जाएगा? सोचिए, सत्तर के दशक में भारत की विदेश नीति क्या थी, जब पाकिस्तान के छक्के छुड़ाने में सफल इंदिरा प्रशासन, निक्सन की धमकियों से भी नहीं डरा, एक लाख युद्ध कैदियों का मोहरा हाथ में आने के बावजूद कश्मीर का समाधान न ढूंढ सका, नब्बे के दशक के आते आते रूस का साथ निरर्थक हो चुका था। अंततः यदि भारत की साख मजबूत हुई तो आम लोगों की प्रतिभा के कारण, दुनिया भर में भारतीय प्राद्योगोकी विशेषज्ञों की प्रतिभा, भारतीय उद्यमियों की  सफलता और उनकी धन अर्जन क्षमता के कारण। इधर भारत सरकार आम लोगों को गरीबी की रेखा से ऊपर ले जाने में अंशतः सफल तो हुई, लेकिन सफर बहुत लम्बा है-आत्मनिर्भरता एक नारा नहीं है, इसके लिए एक राष्ट्र को एक जुट होकर राष्ट्र निर्माण के लिए कार्य करना पड़ता है। भारत यदि यह कर सका तो इक्कीसवीं सदी उसकी होगी, भारत के लोगों की होगी, तब कोई उसकी सीमा पर आँख उठा कर देख न सकेगा। 

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