कोरोना का सबसे ज़्यादा क़हर ग़रीब वर्ग पर ही क्यों?

-अशोक ओझा  

चाहे भारत हो या अमेरिका, कोरोना महामारी का दुष्प्रभाव गरीब वर्ग को ही सबसे ज्यादा क्यों झेलना पड़ रहा है? दोनों देशों की सरकारें इस प्रश्न को सुलझाने में सफल नहीं हो पायीं हैं। भारत में आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग जिन परस्थितियों से गुज़र रहा है, उससे हम सब परिचित हैं। अमेरिका में यह वर्ग है अफ्रीकी-अमेरिकी लोगों का, लातिनी मूल के लोगों का, जो दक्षिण अमेरिकी देशों से विस्थापित हुए, अमेरिका के मूल निवासी जिन्हें कोलंबस ने 'इंडियन' कहा था, आज उन्हें 'नेटिव अमेरिकन' कहा जाता है। अमेरिका की एशियाई मूल की  आबादी भी बीसवीं सदी में उपेक्षित थी, लेकिन यह वर्ग अब आर्थिक रूप से सबल हो चूका है।  

अमेरिका में अश्वेत समूह को दो सदी से भी लम्बे समय से भेदभाव का शिकार होना पड़ा है।  कोरोना से निपटने की बड़ी जिम्मेदारी भी अश्वेत वर्ग पर ही है। अस्पतालों के इमरजेंसी वार्ड में काम करने वाले डॉक्टर सहित नर्सें, सफाई मज़दूर, एम्बुलेंस सेवा, पुलिस बल, एमाज़ॉन के गोदामों, खाने पीने की तमाम दूकानों, रेस्तराँ कर्मचारी, सार्वजनिक वाहनों-जैसे बसों, सबवे कर्मचारी-इन सबको 'फर्स्ट रेस्पॉन्डर' अर्थात मौके पर पहले पहुँचने वाले कर्मचारी की श्रेणी में रखा गया है। कोरोना की चपेट में सबसे पहले यही लोग आ रहे हैं। अमेरिका की 13 प्रतिशत आबादी अफ्रीकी-अमेरिकी या 'ब्लैक (काले)' लोगों की है, उसके बाद नम्बर आता है लातिनी लोगों का। इन समुदायों में उनके परिवार वाले डायबेटीस, अस्थमा आदि बिमारियों से अत्यधिक रूप से ग्रस्त हैं। यह एक कड़वा सत्य है कि 'ब्लैक' समुदाय के संक्रमित लोगों की संख्या समस्त संक्रमित लोगों की आधी है। शिकागो में कुल संक्रमित ‘श्वेत लोगों’ से तीन गुना ज़्यादा 'काले' लोग संक्रमित हुए हैं। न्यू मेक्सिको प्रदेश में कुल संक्रमित लोगों में से आधे लोग 'नेटिव अमेरिकन' समुदाय के हैं।  

‘अश्वेत वर्ग’ का निम्न आय की श्रेणी में बने रहना अमेरिकी पूँजीवादी व्यवस्था की अहम पहचान है । जब से अमेरिका का वजूद हुआ, यानी उन्नीसवीं सदी से ही ‘दासता’ प्रथा के साथ ‘श्वेत प्रधानता’ या  ‘वाइट सुप्रीमेसी’ यहाँ के  जीवन दर्शन का अभिन्न अंग रहा है। इस राष्ट्र के जन्म से लेकर आज तक नस्लवाद समाप्त करने के लिए अनेक क़ानून बनाये गए।  लगभग  75 साल हो गए जब भेदभाव और नफरत की राजनीति को दरकिनार करते हुए, मार्टिन लूथर किंग जूनियर ने सभी नागरिकों को बराबरी के  धरातल पर लाने के लिए सामान नागरिक कानून बनाने के लिय सफल संघर्ष किया था । 

लगभग एक शताब्दी पहले इस देश में अश्वेतों  की हत्या मानो मनोरंजन का साधन थी। ‘अश्वेत अपराधी' की ‘लिंचिंग’ के लिए थिएटर में मनोरंजन कार्यक्रम होते थे, जहाँ कम टिकट वाले दर्शक एक गोली और बालकनी टिकट वाले दो गोलियां दागने के हक़दार होते थे, लिंचिंग के बाद 'अश्वेत अपराधी' के सिर, बाल, हाथ, उँगलियाँ ‘सौवेनिर’ यानी यादगार के रूप में लोग अपने साथ ले जा सकते थे, ट्रॉफी की तरह लिविंग रूम में प्रदर्शन के लिए । जिस देश में राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन को दक्षिण के ज़मींदारों (प्लांटेशन मालिकों) के साथ 'दासता' समाप्त करने के लिए 'गृह युद्ध' का नेतृत्व करना पड़ा, उस देश में बंदूकें या आटोमेटिक राइफल रखना आज भी सांविधानिक  अधिकार है । यहाँ ‘लिंचिंग’ आज भी जारी है । कानून को हाथ में लेकर अश्वेत की हत्या करने वाले लोगों की करतूतें, जो ज्यादातर श्वेत नागरिक या पुलिसवाले होते हैं,  'आत्म रक्षार्थ' (सेल्फ डिफेन्स)  गोली दागने के कारण न्यायालय में जायज़ क़रार दी जाती हैं ,जस्टिस डिपार्टमेंट के फरमान ताक पर धर दिए जाते हैं।

भेदभाव और नस्लवाद  एक ही सिक्के के दो पहलू हैं । जोर्ज़िया प्रदेश का लोकप्रिय पर्यटन स्थल-सवन्ना, जहाँ से 70 मील दूर है ब्रुंसविक नगर- इस नगर में पिछले दिनों एक घटना घटी, एक अश्वेत, निहत्था अश्वेत एक बार फिर श्वेत बंदूक़ का शिकार हुआ ।सोशल मीडिया पर इस घटना की हलचल के कारण अमेरिका की नींद में ख़लल पड़ी -अश्वेत का पीछा करने वाले, बाप-बेटे,अब पुलिस की हिरासत में हैं। गत फ़रवरी माह जोर्ज़िया प्रदेश में श्वेत ग्रेग  मैकमाइकेल और उसके बेटे ट्राविस की जोड़ी ने अहमद  अरबरी नामक  अश्वेत युवक को गोली मारकर हत्या कर दी। मृत्यु  के दो माह बाद अहमद अरबरी का छब्बीसवां जन्म दिन आने वाले था । दो माह बाद घटना का चश्मदीद गवाह बना वह विडियो जो सोशल मीडिया पर उजागर हो गया था।इस विडियो में अरबरी की नृशंस हत्या का दृश्य क़ैद था जिसे हज़ारों लोगों ने देखा । जिसके बाद प्रदेश के अधिकारी हरकत में आए और अभियुक्त बाप-बेटे को गिरफ़्तार किया।अभियुक्त पकड़े  गए, उन्होंने कानून हाथ में  लिया था, अरबेरी को मारने का निर्णय करते हुए उन्होंने एक 'चोर' के साथ  मुठभेड़ की थी। यह 'चोर' एक अश्वेत था। ब्रुन्सविक शहर का भूतपूर्व पुलिस अधिकारी रह चुके   ग्रेग को जैसे ही संदेह  हुआ कि एक 'काला' आदमी पास के मकान से निकल  रहा  है, उसने अरबेरी का पीछा किया । बाप-बेटे एक पार्क में गए, जहाँ अरबेरी 'जॉगिंग' कर रहा था। अरबेरी को उन्होंने पकड़ा, हाथापाई हुई और गोलियां चलने की आवाजें। ग्रेग ने पहले  तो अरबेरी को रूकने के लिए आवाज़ दी। जब वह  रूक गया तो उनकी आपस में भिड़ंत हुई। बाप-बेटे अरबेरी पर टूट पड़े। फिर दो गोलियां दागीं। एक तरह से उसकी लिंचिंग यानी हत्या हुई। ग्रेग-ट्रैविस की जोड़ी के साथ उनका एक और साथी था, जो घटनाक्रम का वीडियो रिकॉर्ड कर रहा था। 

 घटने  का चश्मदीद गवाह बना वह विडियो जो सोशल मीडिया पर उजागर हो गया था, इस विडियो में अरबरी की नृशंस हत्या का दृश्य क़ैद था जिसे हज़ारों लोगों ने देखा । जिस शहर में यह घटना घटी वहां की पुलिस  तो निष्क्रिय थी, यदि मामला प्रदेश के जांच अधिकारियों के पास नहीं जाता तो मामला आगे बढ़ता ही नहीं। जब तक यह चश्मदीद सबूत, विडियो  सार्वजनिक नहीं हुआ था, स्थानीय ‘प्रोसेक्यूटर’ जैसे यह मान बैठे थे कि श्वेत बाप-बेटे ने एक अपराधी’ को मज़ा चखाया होगा। क्या होता यदि विडियो ज़ाहिर ना हुआ होता? जॉर्जिया प्रदेश का  जांच पड़ताल विभाग इस मामले में तब सक्रिय हुआ जब स्थानीय अधिकारियों ने दो महीने तक कुछ नहीं किया। 

यदि अरबेरी की जगह कोई ‘श्वेत’ होता तो क्या ग्रेग  को  उस पर संदेह होता? तब शायद कानून अपना काम तेज़ी से करता। कानून कहता है कि हत्या के अभियुक्तों को जूरी के सामने शीघ्र पेश किया जाना चाहिए। लेकिन जहाँ मामला काले-सफ़ेद  हो तो  कानून का पहिया धीरे चलता  है। यदि पीड़ित व्यक्ति  श्वेत नहीं हैं, तो कानून को भी कोई जल्दी नहीं होती। ग्रेग और ट्रैविस-बाप-बेटे की इस जोड़ी को गिरफ्तार कर लिया गया है, लेकिन अभी उनपर अभियोग लगाया नहीं गया। यानी  न्यायिक प्रक्रिया प्रारम्भ होनी बाकी है। अरबेरी का परिवार न्याय के प्रति पूर्णतः आश्वस्त नहीं।  

अमेरिका धीरे धीरे जानेगा यह मुकदमा कैसे चला, जूरी मामले की तह में जाएगी, हो सकता है, क़ानूनी दाव पेंच के बाद फ़ैसला निकले, बाप बेटों ने  'आत्मरक्षार्थ' गोली चलायी थी । या यह भी  हो सकता है, अभियुक्तों को दोषी क़रार  देकर जेल में डाल दिया जाय, अमेरिका संतोष की साँस ले, और कहानी वहीं ख़त्म हो जाए । 

अमेरिका के नस्ल भेद के इतिहास में एक और कथानक-अरबरी की नृशंस हत्या- जुड़ गया है। ऐसी ही कहानी सन 2012 में अमेरिका ने सुनी थी-ज़िमरमैन की कहानी जिसने फ़्लोरिडा के एक श्वेत इलाक़े में एक निहत्थे को गोली मार दी थी-‘आत्मरक्षार्थ’। यही नहीं, मृतक के परिवार पर उसे 'बदनाम' करने की साज़िश रचने के लिए मानहानि का मुकदमा भी दायर  कर दिया  था । मृतक का नाम था ट्रेवॉन मार्टिन। अरबेरी की हत्या ट्रेवॉन मार्टिन की हत्या की याद दिलाता है। 

फरवरी 2012:  ट्रेवॉन फ्लोरिडा में अपने घर जा रहा था। हथियार बंद जॉर्ज ज़िम्मरमैन ने ट्रेवॉन को मुख्यतः ‘श्वेत’ मुहल्ले में टहलते देखा, उसे ट्रेवॉन पर 'संदेह' हुआ, उसने ट्रेवॉन का पीछा  किया और गोलियाँ चला दीं।  ट्रेवॉन वहीँ ढेर हो गया। पुलिस ने ज़िम्मरमैन को गिरफ्तार करने से इनकार किया क्यों कि फ्लोरिडा के 'स्टैंड योर गार्ड' कानून के अंतर्गत 'यदि आपको संदेह है कि कोई व्यक्ति आपको क्षति पहुंचा सकता है तो आप जानलेवा बल प्रयोग कर सकते हैं, यानी बन्दूक चला सकते हैं।’  

  ज़िम्मरमैन के शक को नकारने के  लिए न्यायलय को कोई आधार नही मिला । जुलाई 2013 में जूरी ने  ज़िम्मरमैन को सभी आरोपों से बरी कर दिया। कहानी यहीं  ख़तम नहीं हो  जाती। ज़िम्मरमैन ने अदालत में अपने विरुद्ध  साजिश रचे जाने का  मुक़दमा पेश किया, और 100 मिलियन डॉलर का दावा ठोक  दिया।   

ट्रेवॉन मार्टिन की मौत से पूरा अमेरिका का अश्वेत समाज हैरान था । यहाँ तक कि उन दिनों के राष्ट्रपति ओबामा ने  यहाँ तक कहा: "आज अगर मेरा कोई पुत्र होता तो वह ट्रेवॉन मार्टिन जैसा होता।” 

अमेरिका में नस्लवाद और अपराध का गहरा सम्बन्ध रहा है। दासता उन्मूलन के बाद  अश्वेतों को अपराधी  साबित करने की लम्बी  परम्परा  रही है। दासता की इस पुरानी परम्परा में नस्लवाद, भेदभाव और अपराध का घालमेल इतना गहरा है कि उसे अलग अलग करने में बराबरी और न्याय के समर्थन में बने तमाम क़ानून, सांविधानिक  प्रावधान धरे के धरे रह जाते हैं-दक्षिण अमेरिका से आने वाले शरणार्थियों को उनके दुधमुहें बच्चों से अलग कर डिटेंशन सेंटर (कारागार) में बंद कर दिया जाता है । जब ट्रेवॉन मार्टिन या अहमद अरबेरी जैसे ‘अश्वेतों' की 'लिंचिंग' सिर्फ इसलिए  होती है कि वे श्वेत नहीं हैं, तो कानून नज़रें फेर  लेता  है,

‘अमेरिकी स्वप्न’ को पाने की  दौड़ यथावत शुरू हो जाती है, अमेरिका का सुखमय जीवन तब तक सामान्य रूप से चलता रहता है जब तक कि कोई और 'अश्वेत' लिंचिंग का शिकार न हो जाय। आज कोरोना का प्रकोप ना सिर्फ़ अमेरिका की नींद में ख़लल डाल रहा है, वरन श्वेत-अश्वेत की खाई को और चौड़ा कर रहा है । 

Ashok OjhaComment