'अमेरिका का हाल' श्रृंखला की पिछली कड़ियों में हम हिंदी शिक्षण के कुछ बुनियादी सिद्धांतों की चर्चा कर चुके हैं। आज की इस कड़ी में मैं इन सिद्धांतों को पुनः परिभाषित करना चाहता हूँ, ताकि शिक्षक पाठ्यक्रम का ढांचा गढ़ते समय इन बुनियादी सिद्धांतों का ध्यान रखें और उन्हें आधार स्तम्भों की तरह प्रयोग में लाएं। चूँकि इक्कीसवीं सदी में भाषा-शिक्षण का एक महत्वपूर्ण उद्देशय दुनिया की वर्तमान समस्याओं और वास्तविकताओं से शिक्षार्थियों को परिचित कराना है, उन्हें स्थानीय समस्याओं को वैश्विक समस्याओं के साथ जोड़ने और उनपर चिंतन के काबिल बनाना है, इन पांच आधार स्तम्भों को भाषा शिक्षण का मानक भी माना गया है। अमेरिका में उनका पालन अंग्रेजी के इतर दूसरी भाषा की शिक्षा के लिए किया जाता है, लेकिन एक शिक्षक के रूप में मेरा मानना है कि ये मानक भारत में गैर-हिंदी भाषियों को हिंदी सिखाने और भारत के बाहर भी उन शिक्षार्थियों को हिंदी सिखाने के लिए उपयोगी हैं, जो अपने अपने घरों में हिंदी के आलावा किसी अन्य भाषा का प्रयोग करते हैं, यानी उनकी मातृभाषा हिंदी नहीं है।
अमेरिका में और भारत के बाहर हिंदी को 'अंग्रेजी के आलावा' प्रमुख भाषा की श्रेणी में रखा गया है। इसे 'दूसरी भाषा' या 'विरासत (हेरिटेज) भाषा' भी कहते हैं। 'दूसरी भाषा' के शिक्षकों को पाठ्यक्रम की रचना करते समय और शिक्षार्थियों को विषयानुरुप गतिविधियों में समाहित करते समय जिन पांच आधार स्तम्भों का ध्यान रखना चाहिए उन्हें हम पांच 'सी' के नाम से भी जानते हैं। उन्हें अंग्रेजी के इतर भाषा शिक्षण का अंतर्राष्ट्रीय मानक (वर्ल्ड रेडीनेस स्टैण्डर्ड) भी कह सकते हैं। वे है:
1. संचार या संवाद (कम्युनिकेशन)-संचार या संवाद को भाषा शिक्षण की आत्मा कह सकते हैं-यह लिखने, पढ़ने के दौरान मौखिक या लिखित हो सकता है। 2. संस्कृति (कल्चर)-भाषा शिक्षण के दौरान शिक्षार्थी उन सांस्कृतिक सन्दर्भों का ज्ञान प्राप्त करते हैं, जहाँ उस भाषा का प्रयोग होता है। 3. संबंध (कनेक्शंस)-अंग्रेजी के इतर भाषा सीखते समय अन्य विधाओं में उपलब्ध सामग्री का ज्ञान भी प्राप्त हो सकता है। उदाहरण के लिए हिंदी शिक्षार्थी राजनीति, विज्ञान, भूगोल, पर्यावरण विषयों में उपलब्ध हिंदी सामग्री का ज्ञान प्राप्त कर सकता है। 4. तुलना और अंतर (कम्पैरिजन/कंट्रास्ट)-नई भाषा शिक्षण के दौरान शिक्षार्थी अपनी प्रथम भाषा में अनुभवों को तुलनात्मक अध्ययन करते हुए वास्तविक जीवन की गहन जानकारी प्राप्त कर सकता है। 5. समुदाय (कम्युनिटीज)-भाषा शिक्षार्थी उक्त सभी तत्वों के अध्ययन से स्थानीय और वैश्विक स्तर पर सामुदायिक गतिविधियों से जुड़ सकता है।
भाषा शिक्षक पाठ्यक्रम या पढ़ाने के लिए अन्य सामग्री की रचना करते समय यह ध्यान रखता है कि शिक्षार्थी इन चार प्रकार की क्षमता-सुनना, बोलना, प ढ़ना, और लिखना-का विकास कर सके। इनका सम्बन्ध भाषा-प्रवीणता से है जो कि अनेक तरीकों से सीखी जाती है। उदाहरण के लिए सुनना एक ऐसी प्रक्रिया है जिसे बातचीत, रेडियो-टीवी आदि अनेक तरीकों से मज़बूत किया जा सकता है। दूसरे शब्दों में संचार या संवाद के अलग अलग तरीकों के जरिए भाषा शिक्षण उपयुक्त सांस्कृतिक संदर्भो के साथ किया जाना चाहिए। ये तरीकें हैं: व्याख्यात्मक (इंटरप्रेटिव); पारस्परिक (इंटरपर्सनल) और प्रस्तुतिकारक (प्रेजेंटेशनल)। इन सभी तरीकों में भाषा और संस्कृति का मेल देखा जा सकता है।
व्याख्यात्मक (इंटरप्रेटिव) तरीके में शिक्षक अपने शिक्षार्थी को नए विषय की मौखिक या लिखित जानकारी प्रदान करता है, विषय का सांस्कृतिक परिप्रेक्ष्य और अर्थ समझाता है जिसे शिक्षार्थी पढ़, सुन या देख कर समझते हैं। पारस्परिक गतिविधियों में शामिल हो कर शिक्षार्थी शिक्षक के साथ या अन्य शिक्षार्थियों के साथ -नई सूचनाओं का अर्थ, उनके सन्दर्भों सहित, मौखिक या लिखित रूप से -परस्पर आदान-प्रदान करते हुए भाषा सीखते हैं। प्रस्तुति के तरीक़े में शिक्षार्थी अपने भाषा ज्ञान को मौखिक या लिखित रूप में प्रस्तुत करता है। यह एकतरफ़ा प्रस्तुतिकरण शिक्षार्थी के भाषा ज्ञान का परिचायक होता है। तीनों तरीकों में शिक्षार्थी की समझ का आकलन शिक्षक द्वारा किया जाता है।
हमने जिस शिक्षण शैली को 'व्याख्यात्मक' कहा है, उसे शिक्षक की पढ़ाने की शैली से जोड़ना उपयुक्त होगा। शिक्षक सम्बंधित पाठ की शिक्षा देने के लिए ग्राह्य भाषा को लिपि, ऑडियो या वीडियो के जरिए प्रस्तुत कर सकता है। वह जिस सामग्री का प्रयोग करना चाहता है उसका प्रामाणिक होना, विषयानुरूप होना और शिक्षार्थी की उम्र, भाषा ज्ञान के उपयुक्त होना ज़रूरी है। इसका कारण यह है कि शिक्षार्थी जो कुछ भी सुनता, पढ़ता और देखता है उसे सही सन्दर्भों में समझता है। लेकिन उपयुक्त पाठ्य सामग्री का चयन शिक्षक के कौशल, उसकी रचनाशीलता पर निर्भर है। इसीलिए इक्कीसवीं शताब्दी में भाषा शिक्षक को उसके मानकों और सिद्धांतों के बारे में प्रशिक्षित होना ज़रूरी है।
शिक्षार्थी बोल कर या लिख कर पारस्परिक संवाद करते समय नई जानकारी या सूचनाओं के अर्थ या उससे सम्बंधित अनुभवों या विचारों का आपस में आदान-प्रदान करते हैं। संचार या संवाद के प्रस्तुति क्रम में सूचना को ग्रहण करने की अपनी क्षमता का प्रदर्शन करते हैं। पाठ्यक्रम की रचना करते समय शिक्षक जिन दो कार्यों को संपन्न होते देखना चाहते हैं, वे हैं: गतिविधियों को पूरा करने की क्षमता और पाठ के लक्ष्य यानी ‘क्या कर सकते हैं (कैन-डू)’। ये दोनों कार्य पारस्परिक संवाद और प्रस्तुतीकरण दौर में पूरे किये जाते हैं।
भाषा शिक्षण का एक आवश्यक अंग है-संस्कृति (कल्चर) इसे समझते समय इसके तीन अवयवों को जानना ज़रूरी है। ये तीन अवयव हैं: वस्तुएं (प्रोडक्ट्स), प्रथाएं या रीति-रिवाज़ (प्रैक्टिसेज) और दृष्टिकोण या सन्दर्भ (पर्सपेक्टिव्स) ।पुस्तकें, खान-पान, संगीत आदि सांस्कृतिक वस्तुएं हैं, जब कि होली, दीवाली जैसे त्योहारों को मनाना प्रथाएं या रीति-रिवाज़ कहे जाएंगे, जब कि उक्त दोनों अवयवों के सांस्कृतिक सन्दर्भ उनके तौर-तरीकों या अर्थ से तात्पर्य रखते हैं। विषय-सामग्री में सांस्कृतिक अवयवों का समावेश भाषा-शिक्षण के अभिन्न अंग हैं। इसी के साथ यह ज़रूरी है की सांस्कृतिक अवयवों के बारे में शिक्षक या शिक्षार्थी के मन में गलतफहमी या भ्रांति न रहे। हिंदी सिखाते समय धार्मिक प्रथाओं को सही सांस्कृतिक अवयवों के साथ समझना आवश्यक है।
सांस्कृतिक उद्देश्यों या लक्ष्य को दो मानकों में बांटा गया है: पहला-सांस्कृतिक प्रतीकों या वस्तुओं को उचित सन्दर्भ में समझना और दूसरा- सांस्कृतिक प्रथाओं, रीति-रिवाज़ों को उचित परिप्रेक्ष्य में समझना। इन दोनों मानकों को पाठ्यक्रम की गतिविधियों में कैसे समाहित करें, यह शिक्षक की दक्षता पर, उनके प्रशिक्षण की गहराई पर निर्भर है। इन सबके लिए पाठ-लक्ष्य और शिक्षार्थी 'क्या कर सकते हैं? (कैन-डू)’ का ढांचा पूर्व निर्धारित है जिसका अध्ययन अमेरिकन कौंसिल के दस्तावेज में किया जा सकता है।
संबंध (कनेक्शंस): भाषा शिक्षण के तीसरे मानक संबंध (कनेक्शंस) की चर्चा करते समय दो बातों पर ध्यान देना ज़रूरी है-पहला यह कि पाठ्यक्रम शिक्षार्थियों को अन्य विषयों या विधाओं से सम्बन्ध स्थापति करने की तरफ ले जाय, और दूसरा यह कि शिक्षार्थी विभिन्न परिप्रेक्ष्य में नई जानकारी ग्रहण करें। भाषा-शिक्षण के ज़रिए अन्य विधाओं या विषयों की जानकारी हासिल करना, गहन सोच और समस्या मूलक बातों का उचित हल निकालना सिखाया जा सकता है।
तुलना या अंतर (कम्पेरिजन/कंट्रास्ट): शिक्षार्थी नई भाषा सीखते समय अपनी मूल सांस्कृतिक अनुभवों से तुलना या अंतर (कम्पेरिजन/कंट्रास्ट) पर गंभीरता से विचार करता है। भाषा शिक्षक इस प्रवृति को प्रोत्साहित करते हैं। शिक्षार्थी भाषा और सांस्कृतिक सूचनाओं/जानकारियों को अपने अनुभवों के साथ परखते हैं। इस प्रकार भाषा और संस्कृति दोनों की तुलना और अंतर करने की क्षमता प्रदान करना भाषा शिक्षण का महत्वपूर्ण उद्देश्य होना चाहिए।
भाषा शिक्षण का पांचवा आधार-स्तम्भ है 'समुदाय'। शिक्षा का महत्वपूर्ण उद्देश्य है समाज से जुड़ना-उस समाज से जहाँ लोग अनेक भाषा और संस्कृति का पालन करते हैं। इस समाज में नई भाषा, संस्कृति और उसका उचित प्रयोग स्वागत योग्य है। यदि पाठन सामग्री इन तत्वों को समाहित करती है तभी शिक्षार्थी नई भाषा को उसकी सांस्कृतिक पृष्ठभूमि के साथ सीख सकेंगे और भाषा शिक्षण का हमारा लक्ष्य पूरा हो सकेगा। शिक्षार्थी अपनी कक्षा में भाषा सिखने के दौरान अनेक गतिविधियों को संपन्न करते हैं, लेकिन सीखी हुई भाषा का इस्तेमाल कक्षा के बाहर की दुनिया में होता है। भाषा-शिक्षा का सही उद्देश्य तभी पूरा हो सकेगा जब हमारा पाठ्यक्रम शिक्षार्थियों को आज के वैश्विक समाज में स्थान दे सकेंगे, उनसे जोड़ सकेगा। साथ ही शिक्षार्थी भाषा-शिक्षण के लक्ष्य स्वयं निर्धारित कर उनकी तरफ सहजता से बढ़ सकेंगे, उसका अध्ययन रोचकता के साथ करेंगे और अपना ज्ञान वर्द्धन करेंगे।
यह लेख अमेरिकन कौंसिल ऑन द टीचिंग आफ फ़ॉरेन लैंग्विज (ACTFL) द्वारा प्रकाशित दस्तावेज़ 'वर्ल्ड रेडिनेस स्टैंडअर्ड्स फ़ॉर लर्निंग लैंग्विजेज़' पर आधारित है । इस लेख से सम्बंधित मौलिक दस्तावेज़ों का अध्ययन करने के लिए यहाँ जाएँ: