हिंदी शिक्षण और सामजिक चेतना -अशोक ओझा

अशोक ओझा, न्यू जर्सी, अमेरिका 

 

भाषा विशेषज्ञों का कहना है कि ‘भाषा-शिक्षण’ ऐसी विधा है जिसके माध्यम से शिक्षार्थियों में न सिर्फ़ सामाजिक चेतना पैदा की जा सकती है वरन उन्हें सामाजिक न्याय के मुद्दों पर जागरूक किया जा सकता है ताकि वे सामाजिक विषमता से जुड़े पहलुओं पर विचार करने में सक्षम हों तथा उनके समाधान की दिशा में योगदान कर सकें। आज इक्कीसवीं सदी के विद्यार्थियों को शिक्षित करने के लिए उनसे विशेष अपेक्षाएँ रखी जा रही हैं। कहा जा रहा है कि इस सदी में उन्हें विश्व नागरिक की भूमिका निभानी है, अतः उनमें इक्कीसवीं सदी की ज़रूरतों के अनुरूप काबिलीयत भरी जाय। विद्यार्थियों को अपने भावी कैरियर में सफलता पाने के लिए उनमें ऐसे कौशल विकसित किये जाएँ जिनसे वे आज के लोकतांत्रिक समाज में तेजी से हो रहे बदलाव को सही दिशा में ले जाने में सकारात्मक योगदान कर सकें। आज के समाज में अनेक चुनौतियाँ सामने आ जाती हैं जिनका सामना समाज के हर वर्ग को करना पड़ता है। स्कूल और कॉलेज के परिसर के बाहर जो कुछ हो रहा है, उसके सम्पूर्ण परिप्रेक्ष्य को समझना, विश्लेषित करना, तार्किक संवाद कायम करना और अपनी भूमिका निर्धारित करने का कार्य शिक्षार्थी और शिक्षक सफलता पूर्वक तभी कर सकते हैं जब कि उनमें रचनात्मक सोच, विश्लेषण, समस्या समाधान,और सामूहिक कार्य संपन्न करने की क्षमता हो। ये सारे कौशल विद्यार्थियों को उनकी प्रारंभिक शिक्षा के दौरान कक्षा में सिखाये जाने चाहिए। 

 

आज के सिमटते विश्व में विद्यार्थियों की वैश्विक जागरूकता आवश्यक है। हमारे आस पास, स्थानीय स्तर पर जो कुछ घटित हो रहा है उसका असर पूरे विश्व पर होता है । उदाहरण के लिए स्थानीय स्तर पर वायुमंडल में ग्रीनहाऊस गैस का अनियंत्रित प्रवाह भूमंडलीय गर्मी पैदा करता है । भूमंडलीय गर्मीका प्रदूषण से सीधा सम्बंध है । यह अप्रत्याशित ठण्ड, बाढ़ और भयंकर जंगली आग जैसी प्राकृतिक विपदा ​को जन्म देती है। भाषा शिक्षार्थी को आज के इन मुद्दों की पृष्ठभूमि से, उनके भाषाई और सांस्कृतिक परिप्रेक्ष्य से, अवगत होना होगा। इसके लिए उन्हें जानना होगा कि मूल 'टारगेट लैंग्वेज' यानी शिक्षार्थी जिस भाषा की शिक्षा प्राप्त कर रहा है, उसकी मूल संस्कृति में, रोज़ाना के रहन सहन में लोग ‘भूमंडलीय गर्मी के बारे में क्या सोचते हैं, उनकी परम्परा और रहन सहनमें पर्यावरण संरक्षण का कितना महत्व है। भाषा शिक्षार्थी मूल संस्कृति के वक्ता से संवाद करने में सक्षम होता है, उसके परिप्रेक्ष्य से सहमत न होते हुए भी उसके प्रति आदर भाव रखता है। इस संवाद की स्थिति के कारण ही शिक्षार्थी अपने विचारों में वैश्विक पृष्ठभूमि का समावेश कर सकता है, और अंततः विश्व नागरिक के रूप में अपनी भूमिका निभा सकता है।

 

भाषा विशेषज्ञों का कहना है कि भाषा शिक्षण का एकमात्र उद्देश्य सिर्फ भाषा कौशल बढ़ाना ही नहीं है। भाषा शिक्षा का महत्व यह है कि शिक्षार्थी अपने ज्ञान का उपयोग करते हुए मूल भाषा के सांस्कृतिक सन्दर्भ को समझते हुए उसके बोलने वाले (नेटिव स्पीकर) के साथ आदरपूर्वक  संवाद स्थापित करने में समर्थ हो। 'अमेरिकन कौंसिल ऑन टीचिंग ऑफ़ फॉरेन लैंग्वेजेज'​ ​(हिंदी में अनुदित-विदेशी भाषाओँ के अध्यापन की अमेरिकी परिषद) ने इस विचार को "वैश्विक क्षमता" और "अंतर-सांस्कृतिक संचार क्षमता" (इंटरकल्चरल कम्युनिकेटिव कंपीटेंस) कहा है जिनके लिए विस्तृत मानक गढ़े  गए हैं। इन मानकों में विभिन्न प्रवीणता वाले छात्रों के लिए 'कैन डू' (‘क्या कर सकता हूँ’) वक्तव्य बनाये गए हैं। भाषा शास्त्रियों ने इन मानकों को सामजिक न्याय शिक्षा के सम्बंधित माना है। 

 

​हालां कि भारत और भारत से बाहर भाषा शिक्षण के अलग अलग मापदंड हैं, लेकिन कुछ पैमाने ऐसे हैं, जिनका उपयोग मूल संस्कृति (भारत) और उसके बाहर (अमेरिका या अन्य देशों में ) समान रूप से किया जा सकता है।  इसके पीछे तर्क यह है कि हम इक्कीसवीं सदी में अपने भाषा शिक्षार्थियों को 'विश्व नागरिक' बनाना चाहते हैं। विगत दो दशकों में भाषा शिक्षण कक्षा में शिक्षार्थियों को संवाद के लिए अनेक परिस्थितियों की कल्पना पर जोर दिया गया है ताकि शिक्षार्थी उन परिस्थितियों के विभिन्न पहलूओं को जाने, समझे, अपने साथियों से उन पर विवाद करे और किसी निष्कर्ष पर पहुंचे, जिसके बारे में कक्षा के बाहर भी चर्चा करने में सक्षम हो। यहीं से बात शुरु होती है इक्कीसवीं सदी में भाषा शिक्षण की। इस सदी के भाषा-शिक्षार्थियों, विद्यार्थियों की ज़रूरतें बदल चुकी हैं। वे ​प्राद्योगिकी में, खास तौर पर अंतरजाल के विस्तार के कारण, प्रवीण हैं, अपने आस पास हो रही सामाजिक , राजनीतिक गतिविधियों के प्रति बेहद जागरूक हैं, और मूल संस्कृति के लोगों से (मूल संस्कृति जहाँ से भाषा प्रारम्भ हुई-इसे 'टारगेट लैंग्वेज' कह कर सम्बोधित किया जाता है।)​ संवाद करने में सक्षम। ​यही सक्षमता उन्हें भाषा-प्रवीण बनाती है।

 

'अमेरिकन कौंसिल ऑन द टीचिंग ऑफ़ फॉरेन लैंग्वेज' द्वारा प्रकाशित पुस्तक, 'वर्ड्स एंड ऐक्शन्स-टीचिंग लैंग्वेजेज थ्रू द लेंस ऑफ़ सोशल जस्टिस' में सामजिक बदलाव से जुड़े विषयों को भाषा कक्षा में उपयोग करने की आवश्यकता पर जोर देते हुए कहा गया है: 'सामजिक न्याय एक ऐसा दर्शन है जिसके द्वारा सभी लोगों को उदारता, आदर और इज़्ज़त से देखा जा सकता है।' 'वर्ड्स एंड ऐक्शन्स-टीचिंग लैंग्वेजेज थ्रू द लेंस ऑफ़ सोशल जस्टिस' के लेखक इस बात पर ज़ोर देते हैं कि विषय वस्तु विशेष पढ़ाते समय शिक्षक पाठ के लक्ष्य को बदल सकते हैं। कक्षा में निर्धारित पाठ्य पुस्तकों के प्रयोग से यह कार्य मुश्किल हो सकता है, इसीलिए भाषा शिक्षण में 'प्रामाणिक  सामग्री' (ऑथेंटिक मटेरियल) के प्रयोग पर जोर दिया गया है। 'प्रामाणिक सामग्री' को पारिभाषित करते हुए कहा गया है कि 'यह सामग्री लिखित भाषा (टेक्स्ट), रिकॉर्ड किया हुआ आडीयो-वीडियो दृश्य (ऑडियो-विज़ुअल) या महज चित्र भी हो सकते हैं, जो कि मूल संस्कृति (जहाँ भाषा मूल रूप से प्रयोग में आती है) में शिक्षण के अलावा अन्य किसी उद्देश्य से बनाये गए हों। इस प्रकार विज्ञापन, फिल्मों के दृश्य, सूचना पट, समाचार कतरनें, टीवी समाचार, आदि सामग्री 'प्रामाणिक सामग्री' की श्रेणी में आते हैं। लेकिन सम्बंधित सामग्री का चुनाव शिक्षक के विवेक पर निर्भर है जिसे देखना चाहिए कि उस सामग्री में प्रयुक्त शब्दावली, विवरण पाठ के उद्देश्यों को पूरा करने के लिए पर्याप्त हैं। सामग्री में सांस्कृतिक सन्दर्भ से भरपूर नए वक्तव्य या प्रश्नों का समावेश कर शिक्षार्थियों के लिए सोचने-विचारने, बहस करने के लिए उचित अवसर पैदा करना भी शिक्षक की जिम्मेदारी ही बनती है। 

 

कुछ लोग कहते हैं कि प्रारम्भिक या नौसिखुए भाषा-शिक्षार्थी (नोविस) के पास अपनी बात कहने के लिए इतने कम साधन होते हैं, उसका शब्द-ज्ञान और संप्रेषण की क्षमता इस क़दर सीमित होती है कि वह सामाजिक और वैश्विक मुद्दों पर अपनी समझ बढ़ाने में अक्षम है, क्यों कि उन्हें पहले तो अपनी भाषा ज्ञान को बढ़ाना है। इसका एकमात्र हल यह हाई कि आधुनिक सामजिक विषयों को पाठ्यक्रम में इस प्रकार सम्मिलित करना होगा कि नौसिखुए (नोविस) विद्यार्थी भी उनसे जुड़े मुद्दों को समझ सकें और संभवतः उस पर अपनी सोच कायम कर सकें। नौसिखुआ भाषा-शिक्षार्थी (नोविस), जो कि मुख्यतः प्राथमिक और माध्यमिक स्कूल का छात्र हो सकता है, शब्द और वाक्यों को रट-रट कर याद करता है। मध्यम स्तर का विद्यार्थी (इंटरमीडिएट) कुछ परिचित विषयों पर अपने विचारों को वाक्यों में व्यक्त करता है, जो कि जरूरी नहीं कि पूरी तरह शुद्ध हों। ये विद्यार्थी जिन विषयों का अध्ययन कर रहे है,उनके सम्बन्ध में पूर्ण वाक्यों में बातचीत या सवाल-जवाब कर सकते हैं। प्रवीणता का सही मापदंड मूल संस्कृति, ‘टारगेट लैंग्वेज’ के वक़्ता से बात करना होगा। मध्यम श्रेणी (इंटरमीडिएट) तक पहुँचते पहुंचते विद्यार्थियों को सामजिक समस्याओं जैसे विषयों पर खुल कर बात चीत करने के लिए प्रोत्साहित करना चाहिए। यहाँ मैं यह स्पष्ट करना चाहूँगा कि प्रारंभिक या नौसिखुए (नोविस), मध्यम (इंटरमीडिएट) और अग्रिम (एडवांस) विद्यार्थियों की ये श्रेणियाँ उन छात्र-छात्राओं के लिए उपयुक्त हैं जो या तो ग़ैर-भारतीय परिवेश से आए हैं, अथवा, भारतीय मूल के होते हुए भी भारत से बाहर पैदा हुए और बड़े हो रहे हैं, उन्हें हिंदी बोलने, लिखने, और पढ़ने का अवसर नहीं मिला। वे अंग्रेज़ी माध्यम के स्कूल में  पढ़ने जाते हैं, जहाँ हिंदी की विधिवत शिक्षा नहीं दी जाती। अमरीका उन्हें विरासत (हेरिटेज) और ग़ैर-विरासत (नोन-हेरिटेज) श्रेणी में विभाजित किया गया है। भारत में हिंदी सीख रहे अन्य देशों के ग़ैर-भारतीय मूल के विद्यार्थियों को इस वर्गीकरण में शामिल करना उचित होगा।

 

उदाहरण के लिए यदि हम प्रारंभिक स्तर के विद्यार्थी  (नोविस) को यह सिखाएं कि वह अपने बारे में पांच बातें कहे तो हर विद्यार्थी अपने बारे में सोचेगा। हम सोचें कि जो बच्चे एक कमरे के घर में रहते हैं, वे क्या कहना चाहेंगे, और जो बच्चे चार कमरे के घर में रहते हैं वे अपनी बात कैसे कहेंगे। शिक्षक के रूप में हम परोक्ष रूप से गरीब और अमीर के रहन सहन के साथ अपने शिक्षार्थियों को परिचित करा रहे हैं, लेकिन यदि चार कमरे के मकान में रहने वाला विद्यार्थी एक कमरे के मकान में रहने वाले विद्यार्थी से परिचित होता है, उसके साथ सद्भावना पूर्ण वातावरण में  मिलकर बड़े और छोटे घरों के बारे में क्या, क्यों, कैसे जैसे प्रश्नों के साथ आपस में बातचीत कर सकता है, तो निश्चित ही हम ऐसा विद्यार्थी वर्ग पैदा कर रहे होंगे, जो कि सामजिक विषमताओं के प्रति न केवल जागरूक होगा, वरन, उस विषय पर अपनी सोच को विस्तृत करेगा। इन सबके लिए उसे भाषा चिंतन, परस्पर वैचारिक आदान-प्रदान और चर्चा करने की क्षमता पैदा करनी होगी। इस प्रक्रिया में उसकी भाषा प्रवीणता आगे बढ़ेगी। इसी प्रकार 'बाल मज़दूरी' एक ऐसा विषय है जिसके बारे में नौसिखुआ से लेकर श्रेष्ठ स्तर तक के विद्यार्थी अपनी भाषा प्रवीणता के आधार पर शोध कर सकते हैं, उसपर विस्तृत जानकारी प्राप्त कर परस्पर विचार विमर्श कर सकते हैं और इस चुनौतीपूर्ण सामजिक समस्या पर अपने वैचारिक निष्कर्ष प्रस्तुत कर सकते हैं। इस तरह के विद्यार्थी 'वैश्विक क्षमता' (global competence) हासिल करेंगे । वे न केवल बोलने, लिखने और पढ़ने की अपनी भाषा क्षमता में विस्तार कर रहे होंगे, वरन वैश्विक नागरिक की अपनी भूमिका भी निभा रहे होंगे।

 

सन 2018 में 'सामाजिक न्याय और नागरिकता' विषय के अंतर्गत मैंने न्यू यॉर्क विश्वविद्यालय के लिए पांच वीडियो तैयार किये,

(https://www.youtube.com/results?search_query=NYU-sangam+foundation+video+by+ashok+ojha),  जिनमें भुक्तभोगियों की राम कहानी उन्हीं की ज़ुबानी कही गयी है। इन वीडियो को निर्मित करने के लिए मैं उत्तराखण्ड गया जहाँ एक गैर सरकारी (NGO) संस्था के सहयोग से उपेक्षित और अभावग्रस्त युवक-युवतियों की आपबीती उन्हीं के मुख से सुनकर रिकॉर्ड की गयी।  'बालिका शिक्षा' और 'बाल मजदूरी' ऐसे विषय हैं जिनसे भारतीय समाज ग्रसित है। समाज के सभी वर्गों के लिए शिक्षा और रोजगार उनके मूल अधिकार होने चाहिए, लेकिन भारत में यह संभव न हो पाया है, जिससे हज़ारों-लाखों उपेक्षित और अभावग्रस्त युवक-युवतियां उचित शिक्षा और रोजगार प्राप्त नहीं कर पाते। इन वीडियो के वास्तविक पात्र अपनी कहानी स्वेच्छा से बयान करते हैं, वे मुश्किलों से संघर्ष की अपनी कहानी कहते हैं, जिसे आधुनिक भाषा शिक्षा में आसानी से शामिल किया जा सकता है। हो सकता है इन कथानकों की भाषा प्रारंभिक स्तर के उपयुक्त न हो, लेकिन शिक्षक इन प्रामाणिक सामग्री के आधार पर शिक्षार्थियों को परस्पर विचार, विवाद और प्रस्तुति के लिए तैयार कर सकते हैं। ये वीडियो समाज के एक वर्ग की वास्तविक कहानी कहते हैं, इसलिए वे प्रामाणिक सामग्री की परिभाषा में शामिल किये जा सकते हैं। उनके आधार पर हम शिक्षार्थियों को सामजिक न्याय से जुड़े पहलू से न सिर्फ अवगत करा सकते हैं, उन्हें सामाजिक असामनता के मुद्दों पर अपनी राय बनाने के लिए पर्याप्त सन्दर्भ और भाषाई सामग्री भी प्रदान करा सकते हैं।   

 

'अमेरिकन कौंसिल ऑन द टीचिंग ऑफ़ फॉरेन लैंग्वेज’-(ACTFL) ने भाषा-प्रवीणता को प्रारम्भिक या नौसिखुआ (नोविस), मध्यम (इंटरमीडिएट), अग्रिम (एडवांस) और श्रेष्ठ (सुपीरियर) श्रेणियों में विभाजित किया है। कौंसिल ने विश्व भाषाओं की शिक्षा के लिए पांच 'सी' का निर्धारण किया है, जिनका समावेश भाषा पाठ्यक्रम में होना चाहिए। प्रथम 'सी' यानी कम्युनिकेशन (संवाद) के  अंतर्गत भाषा शिक्षार्थियों को तीन प्रकार की गतिविधियों में शामिल करना चाहिए-‘परिचयात्मक या सूचनात्मक' (इंटरप्रेटिवे), 'पारस्परिक' (इंटरपर्सनल) और 'प्रस्तुतीकरण' (प्रेजेंटेशनल)। सामजिक न्याय और बदलाव सम्बन्धी विषयों पर भाषा-विद्यार्थियों को शिक्षित करने की बात जैसे ही चलती है, उसे द्वितीय 'सी'-कल्चर (सांस्कृतिक)- यानी संस्कृति के तीन पायों से जोड़ कर देखा जाता है। ये तीन पाए हैं: सांस्कृतिक प्रतीक (प्रोडक्ट) जैसे दीवाली के दीये, सांस्कृतिक प्रथाएं (प्रैक्टिसेज), और परिप्रेक्ष्य (पर्सपेक्टिव)। शिक्षार्थी को वाक्य और शब्दावली सीखते समय विषय वस्तु के सांस्कृतिक प्रतीक (प्रोडक्ट), सांस्कृतिक रीति- रिवाज़ (प्रैक्टिसेज) और सांस्कृतिक सन्दर्भों (पर्सपेक्टिव) की समझ होनी चाहिए। हम देख सकते हैं कि हमारा कोई भी सांस्कृतिक कार्य इन तीनों पायों पर टिका हैं। भाषा शिक्षक का कर्तव्य है कि उसके पाठ्यक्रम में इन सांस्कृतिक पायों को समुचित समावेश करे, ताकि विद्यार्थी सामजिक मुद्दों को समझते समय उसके सांस्कृतिक सन्दर्भ को न भूलें। इस प्रकार यह ज़रूरी है कि भाषा शिक्षक कक्षा में जाने के पूर्व विषय वस्तु के विभिन्न सन्दर्भों से पूरी तरह परिचित हो। तृतीय ‘सी'-सम्बन्ध (कनेक्शन)-के अंतर्गत विषय वस्तु का सम्बन्ध इतिहास, भूगोल जैसे अन्य विधाओं से स्थापित करना चाहिए। चौथे 'सी'-तुलनात्मक (कम्पेरिज़न)-के तहत विषय वस्तु का गहन अध्ययन करते समय शिक्षार्थी को उसकी तुलना अपने वर्तमान जीवन की संस्कृति और निजी अनुभव से करने में  सक्षम होना चाहिए। यह उन विद्यार्थियों पर विशेष तौर पर लागू होता है, जो गैर भारतीय समाज में पीला- बढ़े हैं। पांचवा 'सी'-समुदाय (कम्युनिटीज)-की आवश्यकता इसलिए है कि विद्यार्थी अपने भाषा ज्ञान को कक्षा के बाहर ले जाकर स्थानीय समाज से जोड़े जहाँ मूल संस्कृति के सदस्य रहते हैं, क्यों कि विश्व भाषा सीखने का लक्ष्य यह है कि विद्यार्थी मूल संस्कृति के सदस्यों के साथ सार्थक संवाद स्थापित करने में सक्षम हो सकें।

 

अमेरिका में विदेशी भाषा के शिक्षण के लिए ACTFL द्वारा निर्धारित प्रवीणता मापदंडों का प्रयोग किया जाता है। हिंदी भी अमेरिका में एक विदेशी भाषा है, लेकिन जब हम भारतीय मूल के विद्यार्थियों को हिंदी शिक्षा देते हैं, तब वह अनेक विरासत के विद्यार्थियों के लिए, जो अपने घर में हिंदी का प्रयोग करते हैं, मातृभाषा या स्वदेशी (‘नेटिव')  बन जाती है । युवा हिंदी संस्थान और हिंदी संगम फॉउंडेशन तथा हमारी जैसी अनेक संस्थाएँ अपने पाठ्यक्रमों में अनेक मार्ग दर्शक पैमानों का प्रयोग करती आ रही हैं जिन्हें अमेरिका में विदेशी भाषा अध्यापन के लिए अपनाया गया है। ये मार्गदर्शिकाएँ किसी भी विदेशी भाषा या हिंदी के शिक्षण के लिए उपयोगी हैं। यहाँ यह बता देना उपयोगी होगा कि जब भी विद्यार्थी भाषा की मूल संस्कृति से जुड़े  दैनिक रहन सहन की जानकारी प्राप्त करता है तो उस जानकारी को अपने निजी अनुभवों से तुलना ज़रूर करता है। दरअसल, शिक्षक की जिम्मेदारी यह भी है कि वह अपने शिक्षार्थियों को हर उस नयी जानकारी का विश्लेषण करने, उसकी जानकारी की तर्ज़ पर शिक्षार्थी के निजी अनुभवों की तुलना करने के अवसर प्रदान करे, उसके लिए उपयुक्त गतिविधि तैयार करे। यदि 'टारगेट लैंगवेज' में तालाब में तैरने का सुखद अनुभव चित्रित है, तो शिक्षार्थी को उसकी तुलना अपने तैराकी से अनुभव से करने का मौका मिलना चाहिए, उसे यह भी विश्लेषित करने का अवसर देना होगा कि क्या स्वींमिंग पुल (यदि शिक्षार्थी को सिर्फ उसी में तैरने का अनुभव है) में तैरना ज्यादा सुरक्षित है?  यदि हाँ, तो क्यों? इस प्रकार सुविधा संपन्न समाज का शिक्षार्थी यह समझ सकता है कि आधुनिक सुख सुविधाओं से वंचित समाज में जीवन कैसा और क्यों है । इस क्यों, क्या, कैसे, और कहाँ जैसे प्रश्नों के सहारे हम भाषा विस्तार के अनेक पहलुओं पर शिक्षार्थिओं को सोचने और अपने भाषा ज्ञान बढ़ने का अवसर दे सकते हैं। इस प्रकार हम निश्चय ही भाषा शिक्षण के साथ सामाजिक विसंगतियों से शिक्षार्थियों को परिचित करा रहे होंगे, ताकि वे बड़े होकर समाज की अनेक सच्चाइयों से मुँह न मोड़ लें। 

इस प्रकार हम देखते हैं कि भाषा शिक्षण ऐसी गतिविधि है जो किसी समाज या देश में राजनीतिक ढांचे को निरंतर ​गढ़ती है। हम अपनी अपनी दृष्टि से सामजिक गतिविधियों का विश्लेषण करते हैं। भाषा इस प्रयास को स्वर देती है। और भाषा-शिक्षार्थी उनकी व्याख्या और विश्लेषण करते हुए उसके विभिन्न आयाम को सीखता है।

Ashok OjhaComment