दिल्ली की बदलती तस्वीर

दिल्ली की बदलती तस्वीर 

           (यह लेख सितम्बर 2013 में मेरे दिल्ली प्रवास के अनुभवों पर आधारित है।-अशोक ओझा  )

'दिल्ली में डेंगू से अब तक एक हज़ार सात सौ मरे ….' द्वारका के नव निर्मित दस मंज़िले अपार्टमेंट कॉम्प्लेक्स की दूसरी मंज़िल पर अपने निवास के बालकनी में बैठा यह समाचार पढ़ रहा हूँ । समाचार पढ़ते समय तीन मच्छर काट चुके हैं। बालकनी के सामने का दृश्य आँखों को सुख देने वाला नहीं है । उस खुले मैदान में हरे भरे घास के होते तो बात कुछ और थी । डी डी ए के इस मैदान में पानी जमा रहता है, झाड़ियाँ उग आयी हैं, उनमें  सफ़ेद रंग के जहरीले फूल खिले हैं। पड़ोस की बस्ती में रहने वाले बच्चे स्कूल जाने के बदले इसी मैदान में खेलते हैं। सुनने में आया है कि यह खुला मैदान सुंदर पार्क बनेगा । कब? पता नहीं। फ़िलहाल इस भावी पार्क की टूटी चहारदीवारी पर बच्चे बैठे हैं-१० से १२ साल के बच्चे-उनके हाथों में प्लास्टिक की छोटी थैलियाँ हैं जिनमे सफ़ेद रंग  के द्रव्य भरे हैं। थोड़ी थोड़ी देर में वे थैलियों को चूसते रहते हैं। पास की इमारत के गार्ड बताते हैं-प्लास्टिक की थैलियों में संभवतः घरों को पेण्ट करने वाले पदार्थ या, मोटर टायर के पंक्चर ठीक करने वाला रसायन होता है, जिन्हें चाटने से नशा होता है। ये बच्चे झाड़ियों में एकत्र हो कर नशा करते हैं। दिल्ली के इस इलाके में मकानों की कीमत करोड़ों में है। करोड़ों की इमारतें, डेंगू फ़ैलाने वाले मच्छर, और नशा करते किशोर सब पास पास रहते हैं।

अर्थशास्त्रियों के अनुसार दिल्ली सहित पूरे भारत में लोगों की आय बढ़ रही है, मध्यम वर्ग फैल रहा है, मकानों की कीमतें असमान पर हैं। लेकिन अर्थशास्त्री इस बात की चर्चा नहीं करते कि डेंगू फैलाने वाले मच्छर कितने लोगों को मौत के घाट उतारते हैं। मंत्री की चिंता है अस्पतालों में डेंगू से पीड़ित लोगों के लिए अधिक बिस्तर तैयार करने की, शहर को साफ़ सुथरा बनाने की बात कोई नहीं करता। मरते हुए इनसान किसी को झकझोरते नहीं, न सरकारी तंत्र को, न ही आन्दोलनकारियों को-डेंगू एक सामाजिक सत्य है, जिसे पनपते हुए देखने की आदत दिल्लीवासियों को हो चुकी है। 

नुक्कड़ पर मदर डेरी की गुमटी (दूकान) के सामने, जो सुबह-शाम कुछ घंटों के लिए खुलती है, दूध खरीदने वाले लोगों की लम्बी लाइन लगी है। लाइन में खड़े लोग चुपचाप अपनी बारी की प्रतीक्षा कर रहे हैं । उनका अनुशासन अच्छे नागरिक होने का सबूत दे रहा है । गुमटी के ठीक पीछे कचरे का चौकोर डब्बा है जिसमें पास के रेस्तराँ वाले आधी रात को अपने दूकान बंद करने का पहले बचा हुआ चावल, सब्ज़ियाँ और नूडल की ढेर फ़ेंक देते हैं । आज सबेरे एक अधेड़ औरत और एक किशोर उस ढेर को खंगाल रहे हैं! इसका  क्या करेंगे? डेरी के एक कर्मचारी ने बताया: ये लोग इसे सूअरों को खिलाएंगे। मैं राहत की सांस लेता हूँ यह सोच कर कि होटल का फेंका हुआ भोजन इन्सान के नहीं, पशुओं के काम आएगा। शायद दिल्ली प्रगति कर रहा है, लेकिन देश में अभी भी ऐसे लोग हैं जो जूठन में अपना भोजन तलाशते नज़र आते हैं।

मैं उस मशहूर लाल क़िले के पास से गुज़र रहा हूँ । भारत के प्रधान मंत्री प्रति वर्ष १५ अगस्त को इसी रास्ते से भारत का राष्ट्रीय ध्वज लाल किले पर फहराने के लिए जाते हैं । लेकिन वे बंद गाड़ी में सफ़र करते हैं, पैदल नहीं । मैं पुरानी दिल्ली की तरफ़ बढ़ता हूँ । पुरानी दिल्ली की बस्ती में पैखाने और पेशाब की बदबू फेंफड़े को भर देती है। पास की गली में तलते हुए अंडे और भोजन की दूकानों की कतार--मेरे मित्र ने कहा, अन्दर दूर तक गन्दगी, बदबू, और भीड़ के दमघोटूं माहौल में रहते हैं लाखों लोग, जिनमें अधिकांश अल्पसंख्यक समुदाय के हैं। 

चर्चा है भूतपूर्व सेनाध्यक्ष वी के सिंह के उस वक्तव्य की जिसमें उन्होंने खुलासा किया कि कश्मीरी नेताओं को भारतीय सेना चुपके से पैसे देती थी ताकि वे भारत के समर्थक बने रहें। देश हित में बहुत कुछ होता रहता है, जिसे लोगों को बताया नहीं जाता। जैसे सी आई ए अफ़गानिस्तान, इराक और अन्य देशों में राजनेताओं को धन दिया करती है। इसका भांडा फूटा लेकिन अमेरिका की विदेश नीति पर कोई असर नहीं हुआ। भारत इस विवाद में लिपटा है कि पूर्व सेनाध्यक्ष को गुप्त सैनिक गतिविधियों पर टिप्पणी  करनी चाहिए थी या नहीं, उधर सीमा पार से आतंकवादियों ने हमला कर दिया और ११ सैनिक शहीद हो गए। देश इन हमलों का इतना आदी हो चुका है कि कोई प्रतिक्रिया नहीं होती, बस मरने वालों की गिनती कर ली जाती है। देश इन खबरों से आक्रोषित नहीं होता, शायद आक्रोषित होते होते थक चूका है। थक चूके हैं मेट्रो स्टेशनों पर बन्दूक ताने सुरक्षा कर्मी आतंकियों की प्रतीक्षा करते हुए। जीवन चलता रहता है, मेट्रो से बाहर की तरफ और बाहर से मेट्रो स्टेशन की ओर।

कनाट प्लेस के महंगे रेस्तराँ में अँधेरे कोनों में मुंह सटाए युवक युवतियां शराब की चुस्कियां ले रहे हैं। दोपहर तीन बजे युवा पीढ़ी के ये सदस्य किसी कम्पनी में नौकरी नहीं कर रहे होंगे, शायद कॉलेज में पढ़ते हों, और कक्षा में जाने के बदले प्रेम के महंगे पेंग लगाने के लिए रेस्तराँ का कोना चुन होगा। 'हैप्पी आवर' में 'बाई वन गेट वन फ्री' का आफ़र युवा पीढ़ी को शराब की लत लगाने के लिए कारगर साबित हो रहा है। राजधानी में अमीर वर्ग की नयी पीढ़ी से काफी उम्मीदें हैं।


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