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हिंदी शिक्षण के सिद्धांत

-अशोक ओझा

इस एपिसोड में हम भाषा शिक्षण के उन छह सिद्धांतों की चर्चा करेंगे, जिन्हें 'बेस्ट प्रैक्टिसेज' या सर्वोत्तम शिक्षण तरीकों के रूप में स्वीकार किया गया है। इन सिद्धांतों में सर्वप्रमुख है शिक्षक कक्षा में उसी भाषा का इस्तेमाल करें जिस भाषा की शिक्षा वे दे रहे हैं।  इस सिद्धांत के अंतर्गत हमें हिंदी की पढ़ाई करते समय शिक्षार्थियों के साथ हिंदी का प्रयोग शत प्रतिशत करना चाहिए। सिद्धांत कहता है कि शिक्षक कक्षा में अंग्रेज़ी का तभी प्रयोग करें जब अपनी बात समझाने के सभी तरीक़े विफल हो जायँ । वे तरीक़े कौन से हैं, जिनका उपयोग कर भाषा शिक्षक अंग्रेज़ी का प्रयोग करने से बच सकता है? इसका उत्तर यह है कि शिक्षक अधिकाधिक संख्या में सांकेतिक भाषा, यानी हाव-भाव का प्रयोग करें, विषय से सम्बंधित चित्र, वीडियो, वाक्य और शब्दों का प्रयोग करें। पढ़ाए  जाने वाले वाक्य या शब्दों का  प्रतिनिधित्व करने वाले दृश्य और चित्रों के सहारे दर्जनों बार दुहरा कर पढ़ाएं, ताकि शिक्षक की बातें शिक्षार्थियों की समझ में आये। ऐसा करने से शिक्षार्थी पाठ को अच्छी तरह समझ सकेगा और उसे सीखने  में, याद करने में आसानी होगी। शिक्षार्थी को भाषा सीखने केलिए उसी भाषा का प्रयोग और तौर-तरीकों का इस्तेमाल कर वास्तविक दुनिया के परिवेश से परिचित कराया जा सकता है। दूसरे शब्दों में उन्हें सांस्कृतिक सन्दर्भ में ही भाषा शिक्षण कराया जाना चाहिए। आप कह सकते हैं कि जब शिक्षार्थियों के पास भाषा नहीं तो वे उस माध्यम में कैसे समझेंगे? जब शिक्षक नए शब्दों, वाक्यों का प्रयोग करते हुए शिक्षार्थी को अनेक गतिविधियों में शामिल करते हैं तब शिक्षण समझ में आने वाली बात हो सकती है। इसके लिए शिक्षक को प्रतीकात्मक वस्तुओं, हाव-भाव, सांकेतिक मुद्राओं आदि का प्रयोग करना पड़ता है, जिससे भाषा शिक्षण सहज और अर्थपूर्ण बन जाता है। 

शिक्षार्थी द्वारा सम्पन्न कार्यों, गतिविधियों का आकलन: भाषा शिक्षण के दौरान शिक्षक अपनी कक्षा के शिक्षार्थियों को पाठ्यक्रम के उद्देश्यों से परिचित कराते हैं, और यह जांचते हैं कि शिक्षार्थी उन उद्देश्यों को कितनी सक्षमता से पूरा करते हैं। इसके लिए शिक्षक पाठ्यक्रम पर आधारित, जीवन से जुड़ी विभिन्न प्रकार की गतिविधियों का निष्पादन करने के लिए शिक्षार्थियों को निर्देश देते हैं। इस दौरान शिक्षार्थियों के भाषा सीखने के प्रमाण देखे जाते हैं और उनकी कार्य क्षमता का आकलन किया जाता है। शिक्षक अपने शिक्षार्थियों की भाषा सीखने के गति के अनुरूप नए पाठ का स्वरुप ढालते रहते हैं। आकलन की इस प्रक्रिया में महत्वपूर्ण यह है शिक्षार्थी अपने शिक्षक द्वारा निर्देशित गतिविधियों को, जो कि उन्हें वास्तविक जीवन के कार्य कलाप से परतिचित कराते हैं, जैसे जैसे पूरा करते जाते हैं, उनकी प्रवीणता में वृद्धि होती जाती है। इस प्रकार शिक्षक के आकलन में शिक्षार्थी खरे उतरते हैं कि पाठ के उद्देश्यों को उन्होंने कितनी सक्षमता से पूरा किया। जैसे जैसे शिक्षार्थी पाठ के उद्देश्यों को अपनी गतिविधियों के निष्पादन से पूरा करते जाते हैं, शिक्षक उन्हें नए पाठ की शब्दावली और वाक्य रचना से परिचिति कराते जाते हैं।

उम्र के अनुरूप प्रामाणिक भाषा सामग्री: भाषा शिक्षण में प्रामाणिक सामग्री का इस्तेमाल एक महत्वपूर्ण सिद्धांत  है। इसके तहत  भाषा सिखाते समय शिक्षक जिन लिखित, चित्र या चलचित्रों  (वीडियो आदि) का प्रयोग करते हैं, वे शिक्षार्थी की उम्र, उनकी रूचि, और उनके वर्तमान भाषा स्तर के  अनुरूप होने चाहिए। प्रामाणिक सामग्री वह सामग्री है, जिसका निर्माण भाषा की  मूल सांस्कृतिक परिवेश में हुआ है, उनका निर्माण शिक्षा के लिए नहीं, बल्कि किसी अन्य उद्देश्य से किया गया है। हिंदी शिक्षक भारत के हिंदी समाचार पत्रों की कतरनें, मौलिक लेख, कविता, फिल्म, वेबसाइट या मनोरंजन के लिए प्रदर्शित वीडियो या प्रचार सामग्री को प्रामाणिक सामग्री के रूप में इस्तेमाल कर सकते हैं, लेकिन इन सामग्री का चुनाव करते समय यह देखना ज़रूरी है उनके सहारे शिक्षार्थी किसी सामयिक विषय पर, पढ़ाए जाने वाले पाठ के अनुरूप सूचनाओं की समीक्षा, विवेचना और व्याख्या कर सकते हैं। शिक्षक प्रामाणिक सामग्री को शिक्षार्थी की समझ  में आने लायक तरीकों, हाव-भाव या नाटकीयता के  साथ प्रस्तुत करे तो वह शिक्षार्थी को  अधिक ग्राह्य हो सकता है। यहीं यह प्रश्न उठता है कि भारत की भाषा नीति में  क्या ऐसा कोई प्रावधान है, जिससे प्रेरित हो कर अधिकाधिक संख्या में प्रामाणिक सामग्री का निर्माण हो। भारत के अधिकांश वेब साइट को देखने से ऐसा लगता है कि  उनकी अधिकांश सामग्री (कंटेंट) या जानकारियाँ अंग्रेजी में ही तैयार की जा रही  हैं । हिंदी या भारतीय भाषा में वास्तविक जीवन से सम्बंधित यात्रा वृतांत, लेख, आदि का नितांत आभाव है, जिन्हें पूरा करने के लिए 'नेशनल कौंसिल फॉर एडुकेशनल रिसर्च एंड ट्रेनिंग' जैसे  संस्थानों को सक्रिय बनाने के लिए उन्हें बेहतर संसाधन उपलब्ध कराये जाने चाहिए। यह कार्य उन राज्य सरकारों का भी है, जो अपने काम काज में हिंदी का प्रयोग कर रहे हैं। यहाँ यह बता देना उचित होगा कि बी बी सी हिंदी, हिंदी विकी जैसे चंद वेब साइट को छोड़ कर अनेक जाने माने समाचार पत्रों के समाचार और सूचनाएँ तथाकथित हिंग्लिश में होती हैं । ऐसे समाचार पत्रों या उनके वेब साइट की सामग्री विदेशों में हिंदी सिखाने के उपयुक्त नहीं। भारतीय मीडिया को यह बात समझ में आनी चाहिए कि हिंग्लिश कोई भाषा नहीं, वह मीडिया कर्मियों की सुविधा और हिंदी विरोधियों द्वारा चलायी गयी नयी  चाल है जिसका उद्देश्य हिंदी को कमज़ोर करना और उसका चलन कम से कम करना है । हिंग्लिश के प्रभाव में कई हिंदी समर्थक, व्यावसायिक संस्थाएँ उसके इस्तेमाल की हिमायती हो चुकी हैं। यदि हिंग्लिश का चलन भारत में बढ़ने लगे तो हिंदी के लिए वह दुर्भाग्य पूर्ण समय होगा । ऐसा करने वाले देवनागरी लिपि का प्रयोग छोड़ने की वकालत भी कर सकते हैं। ऐसी स्थिति में हिंदी की आत्मा रोमन लिपि को सौंपी जा चुकी होगी। इन ख़तरों से हिंदी भाषियों को सावधान रहना चाहिए और हिंग्लिश के विरोध में आवाज़ उठानी चाहिए। लेकिन यह लेख हिंदी के समर्थन में आंदोलन चलाने के बारे में नहीं, हिंदी शिक्षण को बेहतर बनाने के लिए है। फिर भी आज नहीं तो कल हिंदी में कार्य करने वाले लोगों को, ख़ास तौर पर हिंदी शिक्षकों को हिंदी के समर्थन में आंदोलन करना पड़ सकता है। भाषा और संस्कृति की रक्षा के लिए आंदोलन की ज़रूरत पड़ सकती है। इसकी अनुपस्थिति में भाषा और संस्कृति को बदलने या लुप्त होने से बचाया नहीं जा सकता है।

आइए, अब भाषा शिक्षण के अगले सिद्धांत पर नज़र डालते हैं। वह है-

शिक्षण सामग्री में संस्कृति, भाषा और नई सूचनाओं का समावेश: इस सिद्धांत के तहत शिक्षकों द्वारा प्रायोग में लायी जाने वाली सामग्री सांस्कृतिक सन्दर्भों से भरपूर होनी चाहिए। भारत की पौराणिक या पंचतंत्र कहानियाँ इस पैमाने पर खरी उतरती हैं। हम कह सकते हैं कि भारत में परम्परागत तौर पर सुनायी जाने वाली, कही जाने वाली या मंचित होने वाली  कहानियों का भंडार है जिनका उपयोग इक्कीसवीं सदी में हिंदी या अन्य भारतीय भाषाओं के शिक्षण के लिए किया जा सकता है। इन सामग्री का प्रयोग कैसे करें, उन्हें किस रूप में शिक्षार्थियों के समक्ष प्रस्तुत करें कि भाषा संस्कृति से ओत प्रोत होकर सम्प्रेषित की जाय, यह सब शिक्षक की भाषा प्रस्तुतिकरण क्षमता और उनकी रचनाशीलता पर निर्भर है क्यों कि शिक्षण सामग्री के प्रस्तुतिकरण में शिक्षार्थी की योग्यता के अनुरूप परिवर्तन करने का लचीलापन हर शिक्षक को करना चाहिए, लेकिन इसे सही ढंग से, वास्तविक जीवन के चलन के मुताबिक शिक्षक अपनी योग्यता, प्रशिक्षण और अनुभव के आधार पर कर सकते हैं । शिक्षार्थी के समक्ष प्रस्तुत की जाने वाली भाषा सामग्रीमें सांस्कृतिक  प्रतीकों, उनके व्यवहार और परिप्रेक्ष्य का समावेश आवश्यक है, साथ ही शिक्षार्थी उसे अपनी रूचि के अनुरूप प्रयुक्त करें तो भाषा शिक्षण का वांछित उद्देश्य पूरा किया जा सकता है। पाठ के उद्देश्यों के अनुरूप ही भाषा सामग्री में  सांस्कृतिक प्रतीकों, व्यवहार, और परिप्रेक्ष्य का समावेश किया जा सकता है। उदाहरण के लिए हनुमान का परिचय देने के लिए शिक्षार्थी को राम के बारे में बताना होगा, उन्हें 'मंकी किंग' नहीं कह सकते,  गणेश का परिचय देने के लिए भारतीय समाज में नए कार्यों को संपन्न करने के लिए मानवेतर शक्ति के सहयोग या आशीर्वाद के महत्त्व की जानकारी देनी होगी। इस प्रकार का ज्ञान भाषा शिक्षार्थी को उसके सांस्कृतिक परिप्रेक्ष्य से जोड़ता है। 

वैश्विक मानक पर आधारित पाठ्यक्रम: अपने पिछले लेखों में मैंने पाँच ‘सी’ का उल्लेख किया है। ये पाँच ‘सी’ वैश्विक मानक हैं, जिन्हें आधार बना कर भाषा पाठ्य क्रम विकसित करना चाहिए। इक्कीसवीं सदी में भाषा शिक्षण वैश्विक मानकों पर आधारित पाठ्यक्रम बना कर ही संपन्न हो सकता है। शिक्षक पाठ्क्रम के आधार पर पाठ्य सामग्री को यूनिट या पाठ में विभाजित कर सकते हैं, जहाँ उनके उद्देश्य, लक्ष्य  (गोल) स्पष्ट तौर पर शिक्षार्थी को बताए जाएँ। इस प्रकार मूल विषय यानी थीम के लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए यूनिट के लक्ष्यों को पहले पूरा करना होगा। इस प्रकार निर्मित पाठ्यक्रम 'बैकवर्ड डिज़ाइन' नियमों का पालन कर रहे होंगे, या उद्देश्यों को पहले रेखांकित करने का कार्य करेंगे। ऐसा करते समय पांच 'सी'-कम्युनिकेशन (संवाद), कल्चर (संस्कृति), कनेक्शन (सम्बन्ध), कम्पेरिज़न (तुलना), और कम्युनिटी (समुदाय) के तत्वों का समावेश मूल विषय, यूनिट और पाठ से जुड़ी गतिविधियों में होना चाहिए। मानकों और 'बैकवर्ड डिज़ाइन' पद्धति के आधार पर तैयार विषय पाठ्यक्रम शिक्षार्थी को एक निश्चित दिशा में निर्धारित लक्ष्य की तरफ ले जाएगा, जहाँ उसकी कार्य क्षमता का आकलन किया जा सकेगा, उसके भाषा ज्ञान में सांस्कृतिक अवयवों को परिलक्षित होते देखा जा सकेगा, और अंततः उसकी भाषा प्रवीणता निर्धारित लक्ष्य की तरफ आगे बढ़ सकेगी। 

शिक्षार्थी-केंद्रित शिक्षा: भाषा कक्षा का नियंत्रण शिक्षक के हाथ से जितनी जल्दी हो, शिक्षार्थी के हाथ में स्थानांतरित होना चाहिए, क्यों कि शिक्षार्थी शिक्षक के बताये रास्ते पर चलते हुए गतिविधियों को संपन्न करता है, अपनी भाषा समझ को समृद्ध करता है। शिक्षक विषयानुकूल शब्दावली, वाक्य रचना, विषय वस्तु का बेहतर ज्ञान तभी दे सकता है, जब कि वह अपनी  प्रस्तुति के बाद बोलने, पढ़ने, और लिखने की समस्त गतिविधियों को पूरा करने की जिम्मेदारी शिक्षार्थियों के  अलग अलग दलों को सौपें, साथ ही यह हिदायत दे कि उन्हें मिल कर और फिर अकेले जो भी ज्ञान हासिल किया, उसका प्रदर्शन करना पड़ेगा। इस प्रक्रिया से शिक्षार्थी अपने अपने दल में पाठ से सम्बंधित गतिविधियों को एक दूसरे की सहायता से पूरा कर सकते हैं और फिर शिक्षक के समक्ष भाषा सम्बन्धी नई जानकारी का प्रदर्शन कर सकते हैं। प्रत्येक शिक्षार्थी के प्रदर्शन पर कक्षा के अन्य विद्यार्थियों की टीका टिप्पणी होगी और इसी प्रक्रिया में वे नयी जानकारी सीखेंगे और वास्तविक जीवन में सीखी हुई भाषा का प्रयोग कर सकेंगे।