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कश्मीर और भारत

(यह लेख 15 Dec 2008 को ,नवभारत टाइम्स में प्रकाशित हुआ था । इस लेख में मैंने संकेत दिया था कि भारत को कश्मीर में देर सबेर अमेरिका समाधान सुझाएगा। लेख के प्रकाशन के लगभग बारह वर्षों बाद आज 2020 तक यह परिवर्तन हुआ कि कश्मीर से 370 हटा लिया गया, कश्मीर का भौगोलिक विभाजन तीन हिस्सों में हो चुका है, भूतपूर्व नैशनल कॉन्फ़्रेन्स नेता फ़ारूख अब्दुल्ला, उनके पुत्र उमर और महबूबा मुफ़्ती की गिरफ़्तारी समाप्त हो चुकी है, और सबको प्रतीक्षा है, कश्मीर के राजनीतिक समाधान की! )

 

लगभग एक दशक पहले मुंबई के भारतीय विद्या भवन में कांग्रेस के नेता मुरली देवड़ा (वर्तमान पट्रोलियम मंत्री) की पहल पर एक आमसभा आयोजित की गई थी , जिसमें मुख्य वक्ता के रूप में अमेरिका के पूर्व विदेश सचिव और वर्तमान युद्धों के आर्किटेक्ट हेनरी किसिंजर मौजूद थे। सभा में किसिंजर से पूछा गया कि कश्मीर समस्या का हल निकालने में अमेरिका भारत का साथ क्यों नहीं देता ? किसिंजर ने दो टूक लहजे में जवाब दिया था- कश्मीर मामले में अगर भारत अमेरिका से सहयोग की उम्मीद करेगा , तो उसे अमेरिकी समाधान के लिए तैयार रहना चाहिए। किसिंजर का परोक्ष रूप से इशारा यह था कि भारत को अपनी समस्याएं खुद सुलझानी चाहिए। मुंबई में आतंकी हमलों के बाद कूटनीतिक गतिविधियां जितनी तेजी से आगे बढ़ी हैं , उनसे ऐसा लगता है जैसे अमेरिका इस हमले को अपने ऊपर हुआ हमला मान रहा है। पूरे घटनाक्रम में मुखिया की भूमिका अख्तियार करते हुए अमेरिका भारत की ओर से पाकिस्तान पर दबाव डालने में कोई कमी नहीं छोड़ रहा। काबुल के भारतीय दूतावास पर बम विस्फोट की घटना में पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आईएसआई का हाथ होने की बात अमेरिका ने भारत की तुलना में ज्यादा जोर देकर की। मुंबई में आतंकी हमलों के बाद अमेरिका की विदेश सचिव कोंडोलीजा राइस ने भारत का दौरा करने में ज्यादा देरी नहीं की। यहां तक कि एफबीआई की टीम भी पकडे़ गए आतंकवादी से पूछताछ के लिए मुंबई आ गई। यहां सोचने की बात यह है कि अमेरिका की दिलचस्पी किस हद तक भारत के हितों की रक्षा करने में हैं। यह आकस्मिक नहीं है कि अमेरिका के नवनिर्वाचित राष्ट्रपति बराक ओबामा की डेमॉक्रेटिक पार्टी के नेताओं द्वारा भारत को युद्ध न छेड़ने की नसीहतें दी जा रही हैं। पिछले कुछ दिनों से न्यू यॉर्क और न्यू जर्सी में मुंबई के आतंकी हमलों के प्रति आक्रोश प्रकट करने के लिए अनेक सभाएं आयोजित की गई , जिनमें जानेमाने डेमॉक्रेट्स भी संवेदना व्यक्त करने आए। लगभग सभी नेताओं ने आश्चर्य व्यक्त किया कि गांधी के देश में यह कैसी हिंसात्मक घटनाएं हो रही हैं। जैसे कि भारत में आतंकियों ने पहली बार हमला किया हो। न्यू जर्सी के गवर्नर जॉन कौरजिन ने जोर देकर कहा कि भारत को युद्ध का रास्ता नहीं अपनाते हुए पाकिस्तान के साथ बातचीत से समस्या सुलझानी चाहिए। भारतीय समुदाय में लोकप्रिय डेमॉक्रेट न्यू जर्सी के सीनियर कांग्रेसमन फैंक पालोन कई सभाओं में एक ही राग अलापते रहे कि मुंबई में हुए टेररिस्ट अटैक को बहाना बनाकर युद्ध नहीं किया जाना चाहिए। पालोन जैसे अमेरिकी नेताओं को संतोष होना चाहिए कि मुंबई की जानलेवा घटनाओं के बाद भारत सचमुच हाथ पर हाथ धरे बैठा है और अमेरिकी निर्देशों का इंतजार कर रहा है।

अमेरिका इस बात से भलीभांति अवगत है कि अफगानिस्तान में नाटो और अमेरिकी सेनाओं के विरुद्ध तालिबान और अल कायदा को समर्थन देने में पाकिस्तान के आतंकी तत्व शामिल हैं , जिन्हें आईएसआई ने पाल-पोस कर बड़ा किया है। अमेरिका के नवनिर्वाचित राष्ट्रपति ओबामा जनवरी 2009 में जब अपना कार्यभार संभालेंगे , तब उनके सामने पाक-अफगान सीमा पर तालिबान और अल कायदा के खिलाफ कार्रवाई करने की सबसे बड़ी चुनौती होगी। ओबामा कह चुके हैं कि वे पाकिस्तान की सीमा में घुसकर अल कायदा और तालिबान पर हमले करने की नीति अमल में लाएंगे। ओबामा पाकिस्तान में और अमेरिकी सैनिक भेजने के लिए वचनबद्ध हैं। लेकिन उन्हें पाकिस्तानी सेना के सक्रिय सहयोग की सख्त जरूरत होगी , क्योंकि अमेरिकी जनता इराक के बाद अब पाकिस्तान में अमेरिकी सैनिकों की ज्यादा संख्या में मौत बर्दाश्त नहीं कर सकती। पाकिस्तानी सेना प्रमुख उस दिन की प्रतीक्षा कर रहे हैं , जब अमेरिका उनसे अनुरोध करेगा कि वे पश्चिमी सीमा पर पाकिस्तानी सैनिकों की संख्या में बढ़ोतरी करें। तब पाकिस्तानी जनरल भारत के साथ तनाव का तर्क देकर अपने सैनिकों को पश्चिम से हटा कर पूर्व की तरफ ले जाने की धमकी दे देंगे। अंतत: अफगानिस्तान की सीमा पर अपने सैनिकों को भेजने की कीमत पाकिस्तान अमेरिका से जरूर मांगेगा। निश्चय ही यह कीमत होगी कश्मीर समस्या के ऐसे हल की , जो पाकिस्तान को कबूल हो। इससे परिस्थिति की मांग कह लें या भारतीय कूटनीति का कमजोरी कि काबुल में अपने दूतावास और मुंबई में आतंकी हमलों के बाद भारत मानो यह स्वीकार करने लगा है कि आतंकियों से लड़ने के लिए अमेरिका से हरी झंडी मिलना जरूरी है। निश्चय ही अमेरिका आतंकवाद के खिलाफ अपनी लड़ाई में भारत को अपना निकट सहयोगी मानता है। अमेरिका यह भी जानता है कि भारत और पाकिस्तान , दोनों की लगाम कैसे पकड़नी चाहिए। वह किसी कीमत पर आतंकवाद के खिलाफ अपनी लड़ाई को भारत-पाक युद्ध के साये में नहीं लड़ना चाहता। इसलिए अमेरिकी प्रशासन को यह स्वीकार करने में ज्यादा देर नहीं लगने वाली है कि भारत पाकिस्तान के बीच समस्याओं की असली जड़ तो कश्मीर है। हालांकि ओबामा ने अपने चुनावी अभियान के दौरान कश्मीर पर उंगली नहीं उठाई , लेकिन डेमॉक्रेटिक पार्टी के दूसरे सीनियर नेताओं ने यह कहना शुरू कर दिया है कि भारत-पाक के बीच विवाद का असली मुद्दा कश्मीर है , जिसका हल निकालना ओबामा प्रशासन के लिए जरूरी होगा। कॉर्टर प्रशासन में अमेरिका के सुरक्षा सलाहकार रह चुके बुजुर्ग जेड. ब्रेजेन्स्की के दिन फिर लौटने वाले हैं। ब्रेजेन्स्की ओबामा के भी सलाहकार माने जाते हैं। पिछले दिनों उन्होंने एक इंटरव्यू में साफ कहा है कि अगर ओबामा प्रशासन को भारत-पाक के बीच पुराने मुद्दों को सुलझाना पड़ा , तो इन पुराने मुद्दों में कश्मीर सबसे ऊपर आता है। इस समस्या का हल निकालने से ही दोनों देशों के बीच शांति कायम हो सकती है। यह स्वाभाविक ही है कि बराक ओबामा की विदेश सचिव हिलेरी क्लिंटन और सुरक्षा सलाहकार ब्रेजेन्स्की -इनमें से हर कोई पहले अमेरिकी हितों की रक्षा की बात सोचेगा, बाद में भारतीय हितों की। कश्मीर समस्या का हल ढूंढते समय वे यह नहीं सोचेंगे कि कौन सा हल भारत को पसंद आएगा , बल्कि तय करेंगे कि कौन सा हल अमेरिकी हितों के लिए ज्यादा मुफीद होगा। भारत को कश्मीर के अमेरिकी हल के लिए तैयार हो जाना चाहिए।