21st Century Hindi

View Original

एक तालाब की कहानी

एक तालाब की कहानी   

-अशोक ओझा 

मेरे रोजनामचे में तालाब पर टहलना एक महत्वपूर्ण गतिविधि के रूप में शामिल है । गर्मियों में हर शाम अपने शहर के इस तालाब पर टहलने के लिए आता हूँ । वर्षों पहले इसे नगरपालिका प्रशासन ने बनवाया था। यह तो बता नहीं सकता कि तालाब का निर्माण कब हुआ था, लेकिन तालाब के एक कोने पर लगे सूचना पट्ट से यह ज़रूर पता चलता है कि उसका नामकरण एक स्थानीय पुलिस कर्मी के नाम पर किया गया । सूचना पट्ट  पर अंकित जानकारी के अनुसार वह पुलिसकर्मी 1971 में जनता की सेवा करते हुए शहीद हो गया । 16 सितम्बर सन 1971 के दिन यह दुर्भाग्यपूर्ण घटना घटी थी । एक स्थानीय बैंक में लुटेरा घुसा, कैशियर  को बंदूक़ दिखायी कि तभी बैंक का अलार्म बज उठा । आनन फ़ानन में दो पुलिसकर्मी वहाँ पहुँच गए । भागते हुए लुटेरे ने पुलिस पर गोलियाँ चलायीं जिससे एक पुलिसकर्मी बुरी तरह ज़ख़्मी  हुआ, उसे स्थानीय अस्पताल ले जाया गया, जहाँ उसकी मृत्यु हो गयी। गोलीबारी में लुटेरा भी मारा गया। बत्तीस वर्षीय शहीद पुलिसकर्मीकी पावन स्मृति में इस तालाब का नाम रखा गया। सूचना पट्ट पर शहीदपुलिस कर्मी  की स्मृति में एक विलाप भी अंकित है: “व्हाई गॉड? हे ईश्वर, ऐसा क्यों हुआ?” यह पुलिस कर्मी तो अपना कर्तव्य निभा रहा था, जनता को सुरक्षा प्रदान करने के लिए, उसे क्यों मौत का मुँह देखना पड़ा? व्हाई?” 

तालाब पर टहलने वाले नागरिकों की निगाहें इस स्मृति पटल पर पड़ती हैं , वे इस प्रश्न को भी पढ़ते हैं, लेकिन उत्तर की प्रतीक्षा किए बिना आगे बढ़ जाते हैं । 

गर्मियों में शाम पाँच से सात के बीच तालाब पर बड़ी हलचल रहती है । लोग पार्किंग मैदान में अपनी गाड़ियाँ खड़ी कर सपरिवार टहलने आते हैं, बत्तख़ों को दाना डालते हैं । बत्तख़ों को ज़मीन पर चलते और पानी में तैरते देख कर बच्चे ख़ुश होते हैं ।बुज़ुर्ग तालाब के किनारे बने रास्ते पर टहलते हैं । वहाँ लिखा है, यदि आप तालाब के दो चक्कर लगा लें, तो डेढ़ किलोमीटर का सफ़र तय कर लेंगे । इस सूचना को पढ़ कर लोगों को प्रोत्साहन मिलता है । वे और चलते हैं।

तालाब की दूसरी तरफ़ के पेड़ों को काटा नहीं गया है । इस कारण तालाब का यह किनारा छायादार रहता है  ।पेड़ की छाया तले बैठ कर नगरवासी मछली पकड़ सकते हैं। तालाब में मछली मारने की इजाज़त है, लेकिन तैरने या नौकायन की नहीं । दिन भर शौक़िया मछुआरे बंसी पानी में डाले घंटो बैठते हैं ।मछली मिलती है  या नहीं, यह तो पता नहीं चलता, लेकिन मछली मारने वाले माता-पिता के बच्चे इधर उधर घूमते हैं, उनके लिए यह अच्छा मनोरंजन होता है । दिन ढलते ढलते मछुआरे अपनी  बंसी समेट कर चले जाते हैं ।

पेड़ों के आसपास झाड़ियाँ इतनी बढ़ गयी हैं कि एक छोटा जंगल जैसा बन गया है। तालाब की तरफ़ से झाड़ियों में झाँकने पर रेलवे की पटरियाँ दिखायी देती हैं जिन पर हर आधे घंटे में तेज़ी से भागती हुई रेलगाड़ी देखी जा सकती है। तालाब का चक्कर लगाते हुए जब हम जंगल तक पहुँचते हैं तो अक्सर दो छोटे हिरण उसमें चहलक़दमी करते दिखायी देते हैं । कभी कभी तीन हिरण भी दिखायी देते हैं । वे निर्भीक हो कर पेड़ों के इर्द गिर्द घूमते हैं, कूदते हैं । कोई उन्हें परेशान नहीं करता;  बच्चे उनका पीछा नहीं करते । इससे हिरण भी निडर हो कर चरते रहते हैं, कभी कभी लोगों की तरफ़ देखते और फिर उछल कर दूर भाग जाते हैं । उन्हें उछलना कूदना देखना अच्छा लगता है ।

तालाब के बीचों बीच करीब दस-पंद्रह फीट ऊँचे तीन फ़व्वारे छूटते हैं । इन्हें नगरपालिका प्रशासन ने बनवाया।  तीनों में से एक दिन भर चलता रहता है ताकि लोगों का मनोरंजन हो। फ़व्वारे का पानी तालाब की सतह से  ऊपर उठ कर वापस पानी में गिर जाता है। विशाल तालाब के पेट से पानी का फ़व्वारा उठना देखते ही बनता है । जब ढलते सूरज की किरण तालाब की सतह को चूमती है, तब फ़व्वारों की पतली धारों के बीच इंद्रधनुष बनता है । कुछ लोग उसका आनंद उठाते हैं ज़्यादातर लोग उदासीन नज़र आते हैं । नगरपालिका प्रशासन आने वेब साइट पर इस फ़व्वारे का ज़िक्र करना भूल गया, साथ ही, ‘यह फ़व्वारा आपको कैसा लगा?’ जैसा प्रश्न भू पूछना रह गया, इसलिए यह पता करना मुश्किल है कि नगरपालिका का यह दर्शनीय प्रयास कितने लोगों को अच्छा लगा। 

तालाब की नैसर्गिक ख़ूबसूरती का लाभ उठाते हुए और आस पास के खुले मैदान में सैकड़ों गाड़ियों की पार्किंग सुविधा के कारण वहाँ छोटे-बड़े जन समारोहों और सामाजिक-सांस्कृतिक आयोजनों की पूरी गुंजाइश रहती है। शहर के कुछ उत्साही भारतीय मूल के लोग प्रति वर्ष अक्टूबर माह में यहीं दशहरा उत्सव आयोजित करते हैं। पार्किंग मैदान में राम लीला का प्रदर्शन भी होता है। उत्सव आम तौर पर शनि या रविवार को होता है । उस दिन तालाब के पास रावण और उसके दो भाई, मेघनाद और कुंभकर्ण के पुतले जलाए जाते हैं। जैसे ही अँधेरा होता है, रामलीला के मंच पर रावण वध दृश्य अभिनीत होता है और तालाब किनारे पंद्रह बीस फ़ीट ऊँचे पुतले चमकीले सितारे आसमान में छोड़ते हुए जलने लगते हैं। उपस्थित जन समुदाय उल्लास भरे मूड में आ जाता है जैसे कि किसी भारतीय शहर में आ गया हो । हँसी ख़ुशी की आवाज़ें गूँजने लगती हैं, लोग समोसे, चाट, पानी पूरी खाने में व्यस्त हो जाते हैं। मंच पर समाज के जाने माने लोगों का सम्मान करने का सिलसिला शुरू हो जाता है। इनमें वे लोग ज़्यादा होते हैं जिन्होंने आयोजन के लिए चंदे दिए थे । भारतीय-अमेरिकी समाज अपनी सांस्कृतिक विरासत का प्रदर्शन कर देता है। सबूत के तौर पर स्थानीय मेयर भी मुख्य अतिथि के रूप में पधारते हैं और भाषण करते हैं। अधिकांश वक़्ता भारतीय संस्कृति की सराहना करते हैं और इस बात पर मुहर लगाते हैं कि भारतीय मूल के लोग अमेरिकी समाज को विविधता का जामा पहनाते हैं, उन्हें यह काम करते रहने के लिए अमेरिका वचन बद्ध है। अमेरिकी समाज में दुनिया की सभी संस्कृतियों और परम्पराओं के फलने फलने की छूट है, चाहे राष्ट्रपति कुछ भी कहते रहें ।

गर्मियों में हर रोज़ तालाब के पूर्वी छोर पर आगंतुक  अपनी गाड़ियाँ पार्किंग दान में ख़ड़ी कर देते हैं। कार से बाहर निकलते ही उनकी नज़र कंक्रीट के उस चबूतरे से टकराती है जिस पर दो मिनीएचर मीनार गढ़े गए हैं । उनके ठीक नीचे लिखा है-‘इन मेमोरी ऑफ़ 9 -11’ (9 -11 घटना की याद में)-यानी सितम्बर 2001 का वह दिन, जब दो विमान वर्ल्ड ट्रेड सेण्टर की दो इमारतों से टकराये थे-इनमें से एक इमारत 101 मंजिल की थी, पूरे अमेरिका को उस पर गर्व था । 9-11 अमेरिका के हर नगरवासी के लिए न भुलायी जा सकने वाली घटना है जिसमें न्यू यॉर्क के आस पास के नगरों से आग बुझाने वाले दस्तों ने अपने दस्ते भेजे थे और कुर्बांनियाँ दी थीं । आग बुझाने वाले अनेक कर्मचारी वर्ल्ड ट्रेड सेण्टर के मलबे में दफ़न हो गए थे ।

तालाब के दक्षिणी किनारे पर पेड़ और झाड़ियों को साफ़ कर हरे घास के स्वच्छ मैदान और ढलान निर्मित किए गए हैं, थोड़ी थोड़ी दूरी पर बेंच भी लगाए गए हैं, जिन पर बैठ कर आप तालाब के पानी को, तालाब में तैरते बत्तख़ों को निहार सकते हैं । किनारे किनारे पैदल चलने वालों के लिए पतली सड़क बनी है जिस पर तीर के निशान से आने-जाने की दिशाओं के संकेत दिए गए हैं। तालाब के  ठंडे पानी में तैरने के लिए बत्तख़ों का स्वागत है, वे कनाडा से सैकड़ों मिल की यात्रा कर यहाँ पहुँचते हैं। उनमें से कई तो तालाब के आस पास ही महीनों रहते हैं, बच्चे पैदा करते हैं, अपने परिवार पालते हैं। लेकिन बत्तख़ों की बड़ी संख्या उनकी है जो दिन भर तालाब के पानी में अथवा उसके किनारे दिन गुज़ारने के बाद शाम ढलते ही उड़ जाते हैं । शायद किसी बेहतर स्थान पर अपना अस्थायी डेरा बनाया हो! जाड़े का मौसम नवम्बर में शुरू होगा, तब ये दक्षिण की ओर उड़ जाएँगे। ये बत्तख़ नगर वासियों के लिए समस्या भी खड़ी कर देते हैं- नागरिकों के चलने के लिए बनायी गयी सड़क पर गू करके । साफ़ सुथरे नागरिकों को यह नागवार गुज़रता है, नगरपालिका वाले भी सड़क की सफ़ाई करते करते तंग आ जाते हैं…

…और तालाब को साफ़ सुथरा बनाए रखने के लिए, उसे नगर वासियों के घूमने लायक बनाए रखने के लिए बत्तख़ों की आबादी कम करना ज़रूरी है, उनमें से कुछ को ‘न्यूट्रलाइज’ करना अधिकारियों की मजबूरी है । अगले वर्ष की गर्मियों में बत्तख़ चूज़ों को जन्म देंगे, लेकिन उनकी आबादी बढ़ने पर नगरपालिका के पास उनकी संख्या कम करने के लिए ‘न्यूट्रलाइज’ करने के सिवा कोई रास्ता नहीं बचता। अमेरिका में पक्षी, जानवर या नागरिकों को नियंत्रित करना ज़रूरी है, नहीं तो वे सामाजिक पर्यावरण की सुरक्षा में बाधक हो सकते हैं।

**

इस अमेरिकी तालाब का चक्कर लगाते हुए मुझे याद आता है मेरे गाँव का वह तालाब-जिसे गाँव वाले पोखरा कहते थे। गांव में एक ही पोखरा था। गर्मी के मौसम में पोखरा में छपकोले खेलना मुझे याद है। गांव के किशोर अपनी भैसों को उस तालाब में नहलाने ले जाते। तालाब के बीचोंबीच जाकर भैसों की पीठ पानी की सतह पर होती जिस पर डंडा लिए खड़े किशोर बिरहा गाते। भैसें पगुराते हुए ठण्डे पानी में तैरने का आनंद लेती रहती। बचपन में जब भी मैं गाँव के पोखरा की तरफ़ घूमने जाता, सुबह सुबह दूर से आने वाली छोटी लाइन की इंजन दिखायी देती, उसका धुआँ आसमान की तरफ़ उठता नज़र आता । धूक-धूक की आवाज़ के साथ गाड़ी धीमी रफ़्तार से आगे चली जाती ।

पोखरा के एक छोर पर एक पुराना पीपल का पेड़ का था । उसके नीचे छांव में हम घंटों बैठते ।कुछ बच्चे पोखरा में नहाते रहते । पोखरे का आधा हिस्सा पानी पर उगने वाले हरे रंग के काउर से ढका होता, उसे साफ़ करने की ज़हमत कोई नहीं उठाता । पोखरा के चारों तरफ़ कोई पेड़ नहीं था, सिर्फ़ मिट्टी के टीले थे, जो यह बताते कि पोखरे की खुदाई से निकली मिट्टी को टीले की तरह रख दिया गया होगा। इस टीले पर बच्चे और बूढ़े, सुबह सुबह पखाना करते थे, जिससे सुबह सुबह गंदी बदबू पोखरा के चारों तरफ़ फैल कर हवा को बोझिल कर देती ।

पोखरे की आसपास की खुली जगह पर खड़ा होना जाड़ा के दिनों में तो सुहाना लगता , लेकिन गरमी के मौसम में पूरे दिन वहाँ जाना तख़लीफदेह होता था । पेड़ों के न होने से पोखरे का सबसे बड़ा आकर्षण उसका पानी होता । गरमी और भीषण लू के कारण पोखरे का पानीभी धीरे धीरे सूखने लगता, पोखरे की तलहटी में कीचड़ बच जाती, जिसमें भैसें लोट पोट कर अपने पूरे शरीर पर कीचड़ की परत जमा कर लेतीं । छठ का समय आते आते, वहाँ मुश्किल से घुटने भर पानी होता, जिसमें अर्घ और पूजा की रस्में पूरी की जातीं । कुछ वर्षों में जब तालाब में पूजा करना भी संघर्षमय हो गया, तब गाँव के लोग अपने घरों में ही कुंड बनाने लगे, उसमें कुएँ से पानी भरते और छठ पूजा करने लगे। 

पोखरे पर गए लगभग पचपन वर्ष बीत चुके हैं । सोचता हूँ अगली बार जब भारत जाऊँ तो देखूँगा कि क्या गाँव के बच्चे आज भी पोखरा में अपनी भैसों को नहलाने के लिए जाते हैं? बिरहा गाते हैं? या फिर पोखरा है भी या  नहीं?