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मॉरीशस: वर्तमान और अतीत का समन्वय

मॉरीशस: वर्तमान और अतीत का समन्वय

-अशोक ओझा

हिन्द महासागर में स्थित द्वीप मॉरीशस की यात्रा मेरे जैसे भारतीय मूल के वासी के लिए अतीत में झाँकने जैसी है। मैंने एक पर्यटक की भांति मॉरीशस यात्रा की योजना बनाई थी। ​ शिवसागर अंतर्राष्ट्रीय विमान स्थल पर वीसा की मुहर लगते समय पर्यटक होने का एहसास​ ​उस समय तक ​था जब कि ​महिला ​वीसा अधिकारी ​ने ​वापसी का टिकट और तारीख ​पूछा। वीसा अधिकारी​ भारतीय लग रही थी, आपने आप को​ उससे ​पूछने  के लिए रोक नहीं पाया कि "आपके पूर्वज कहाँ से आये थे?" पासपोर्ट पर मुहर लगाने के बाद जब नज़रें ​मिलीं, महिला अधिकारी ने बताया: 'मेरे पूर्वज दक्षिण भारत से आये थे।' पर्यटक​ का ​एहसास शीघ्र ही आत्मीयता में बदल ​गया। ​​विमान स्थल से बाहर निकलते ही हर मॉरीशस वासी से पूछने की इच्छा ​हुई, ​'​आपके पूर्वज कहाँ से आये थे?​'​ 

मेरा ​होटल​ ​विमान स्थल से  पांच मिनट ​दूर था। उसकी हर मंज़िल पर खुली छत और वहां बैठने की जगह थी। सुबह सूरज निकलने के पहले हम छत पर बैठ गए सूरज के आगमन की प्रतीक्षा में। क्षितिज पर धुंधलका छँटा, आसमान गुलाबी से सुनहरा होने लगा, तभी बादल छा गए। सूरज नहीं दिखा। कुछ मिनटों बाद क्षितिज की लालिमा के पीछे से सूर्योदय की पहली किरण मॉरिशस के समतल मैदान पर पसर गयी। छत ​के चारों तरफ उजाला ​छा​ गया था। मैंने देखा-मॉरिशस की विशाल, खुली धरती-दूर दूर तक खुले मैदान के बीच पतली सड़क को रेखांकित करती इक्की-दुक्की कारें। लेकिन समंदर कहाँ है? यह स्वाभाविक प्रश्न नाश्ते के टेबल पर सामने खड़ा था। "दस बजे होटल की मिनी बस आपको निकटतम गांव में ले जाएगी, जहाँ हमारा 'बीच हाउस' है। वहीँ समंदर की हलकी लहरों का आनंद लेते हुए स्नान कर सकते हैं। 'बीच हाउस' में चाय आदि की व्यवस्था भी है। शाम तक वहां आप समंदर का आनंद लें, फिर दोपहर में वापसी की बस में होटल लौट आएं", होटल कर्मचारी ने, जिनका नाम वेद था, सुझाव दिया। वेद जी के सुझावों का पालन करते हुए हम ठीक दस बजे होटल के मुख्य द्वार पर आ गए जहाँ मिनी बस हमारा इंतज़ार कर रही थी। लगभद दस मिनट तक हमारी बस विशाल नीले समुद्र के साथ साथ चल रही थी। यह सफर एक सुखद अनुभव था।सड़क मार्ग से यात्रा के दौरान हमारा परिचय दो युवकों से हुआ, जो कि मेडागास्कर द्वीप से आये थे। हमने उनसे पूछा: "क्या आपका देश मॉरिशस जैसा है?" उन्होंने कहा: "प्राकृतिक रूप से तो ऐसा ही है, लेकिन सामजिक-राजनितिक जीवन शांत नहीं है।"मेडागास्कर में राजनीतिक उथल पुथल से मैं परिचित था। मन ही मन संतोष हुआ कि मॉरिशस इस किस्म की अशांति से बचा हुआ है। एक लोकतान्त्रिक समाज-व्यवस्था के रूप में मॉरिशस को मॉडल देश माना जाता है, जहाँ की वर्तमान अर्थव्यवस्था संतुलित है, वरिष्ठ नागरिकों और स्कूली छात्र-छात्रों को बसों में निःशुल्क यात्रा की सुविधा दी जाती है और सार्वजनिक स्थानों पर कागज़ के टुकड़े या गन्दगी दिखायी नहीं देती। हम सड़क और उसके पार फैले समुद्री सतह को देखने लगे। सागर सुबह की ख़ामोशी ओढ़े शांत स्थित था । तटवर्ती लहरें खामोश थीं। बस उस सड़क पर  समंदर के किनारे किनारे चल रही था। कहीं कहीं सड़क पानी पर बने पुल से गुजरती थी।  बस एक छोटे से कॉटेज में घुसी। यही 'बीच हाउस था'। बस से बाहर निकल कर हमने एक मंज़िले 'बीच हाउस' की तरफ देखा। मेरी निगाहें कॉटेज के ड्राइंग रूम और उसके पार छोटे आँगन से गुजरती हुई समुन्दर की सतहों पर दूर नज़र आ रही सफ़ेद लहरों को छूने लगी। कॉटेज के प्रभारी ने हमारा स्वागत किया। हमने उनसे पहला प्रश्न किया: "समुद्री लहरें किनारे की तरफ क्यों नहीं आ रहीं?" उन्होंने बताया: "इस तट पर पानी की सतह के ठीक नीचे 'कोरल रीफ' का विस्तृत संसार है, जिसके कारण लहरें उन्हें पार नहीं कर पातीं। सफेद लहरें रीफ से दूर उठती और बिखरती रहती हैं। 'कोरल रीफ' को नज़दीक से देखने के लिए नौकाएं किराये पर ली जा सकती हैं", उन्होंने सुझाया।    

कुछ नौकाचालकों ने छिछले पानी में  एक घंटे तक घुमाने का प्रस्ताव रखते हुए दूर क्षितिज पर दीख रहे नन्हे द्वीप की  तरफ इशारा किया जहाँ हम सब तैर सकते थे। 'कोरल रीफ' के विस्तार और रंग-बिरंगी मछलियों कोदिखाने का वादा करते हुए नौका चालक ने बताया कि मछलियों को इतना नज़दीक से देख सकते हैं, छू सकते हैं और उनके भोजन के लिए कुछ खाद्य पानी में फेंक कर दर्जनों मछलियों को उस पर झपटते भी देख सकते हैं। जैसे ही हम नौका में सवार हुए, हमें देखा, पेंदा पारदर्शी था, यानी हम पानी की सतह और उसके नीचे के हिस्से को आसानी से देख सकता थे। इस रोमांचक अनुभूति को शब्दों में बयान करना मुश्किल है। थोड़ी ही देर में हम 'कोरल रीफ' की झाड़ियों के ऊपर से गुज़र रहे थे। हमें देखा कि इन झाड़ियों में छोटी मछलियां भी रहती हैं। जैसे जैसे आगे बढ़ते गए, झाड़ियाँ घनी होती गयीं, उनमें रहने वाली मछलियों की संख्या में विस्तार होता गया। एक स्थान पर नौका चालक ने पानी में कुछ खाने की सामग्री फेंकी जिस पर दर्जनों मछलियां झपट पड़ी। हमारी नौका के पास ही आधी दर्ज़न अन्य नौकाएं  खड़ी थीं जिनके पर्यटक पानी में तैर रहे थे। "समुद्र स्नान करने का यह बहुत आदर्श स्थान है, शांत लहरें और थोड़ा गहरा पानी, साथ में तैरती मछलियों का साथ-और क्या चाहिए? थोड़ी देर मछलियों के साथ मन बहलाने के बाद हम उस छोटे द्वीप की तरफ चल पड़े, जहाँ विश्राम करना था। द्वीप पर सिर्फ विदेशी सैलानियों के जाने की इजाजत थी। यह बात समझ में नहीं आयी कि द्वीप कुछ पर्यटकों के लिए वर्जित क्यों है? बहरहाल, हमने वहां समुद्र स्नान किया। समुद्री पवन तेज हो रहा था, ठण्ड बढ़ रही थी, हम नौका में बैठकर अपने 'बीच हाउस' लौट आये।

 

मॉरिशस के उत्तर में स्थित इस समुद्र तटीय गांव का नाम है: मोहेबर्ग। अगले दिन मोहेबर्ग का सामजिक जीवन देखने का निर्णय किया। मोहेबोर्ग समुद्र तट से स्थानीय बस ले कर हम पास के बाज़ार का भ्रमण करने पहुंचे। हमारे साथ अमेरिका से आयीं दो हिंदी शिक्षिकाएँ भी थीं-अखिला और संध्या। दोनों  ही बाज़ार घूमने के लिए अत्यंत उत्साहित थीं।सन 1804 में मोहेबर्ग नगर की स्थापना हुई थी और 1810 में नेपोलियन की नौसेना ने यहीं अंग्रेज़ों पर विजय प्राप्त की थी। एक ज़माने में यह शहर गुलामों का बाज़ार हुआ करता था। आज वहां अनेक व्यापारिक गतिविधियां होती हैं, बहुत कुछ वैसी जो किसी भारत के शहर में देखने को मिलती हैं। बाज़ार में स्थानीय सब्ज़ी, फल आदि के आलावा दैनिक उपयोग के सस्ते सामान भी थे,  जिनमे से अनेक भारत या चीन से आए होंगे।  मुख्य बाजार से पांच दस मिनट तक चलने के बाद कबाड़ी बाज़ार-यहाँ भी दैनिक उपयोग की चीज़ें मिल जाएँ। हमारी सहयोगी शिक्षिका संध्या जी को इन बाज़ारों में बहुत कुछ मिल ही जाता है। उन्होंने अपने लिए सैंडल और स्वेटर ख़रीदा-पांच डॉलर से ज्यादा खर्च नहीं हुए। तभी एक साइकल पर नारियल वाला दिखायी पड़ा । हम सबने उसे नारियल छीलने और उसमें से मलाई अलग और पानी अलग करने का आदेश दिया।आधे घंटे तक प्रयास के बाद हमें नारियल पानी पीने को मिला और मलाई खाने को! एकाध घंटे घूमने के बाद हम भोजन की तलाश में थे। एक फ्रेंच रेस्टोरेंट में मेनू कार्ड देखा। फ़्रेंच नाम होने के बावजूद भारतीय सब्ज़ी आदि पसंदीदा शाकाहारी भोजन सूची में शामिल थे। रेस्टोरेंट में एकमात्र  वेटर-बीस साल की एक छात्रा जो नौकरी के साथ पढ़ाई भी करती है। हमने उसे शुभकामनाएं दीं, पढ़ने के साथ काम करने के उसके फैसले की तारीफ़ की और जाते जाते आकर्षक टिप भी छोड़ी। मोहेबर्ग के जीवन से रू-ब-रू होने के बाद हम बस स्टैंड की तरफ चल पड़े जहाँ से समंदर का नीला संसार दीख रहा था।बस से हमें बीच हाउस जाना था। मोहेबर्ग की सुखद यात्रा कभी गोवा के समुद्र तट से परिचय कराती तो कभी वहां के विनम्र सीधे सादे लोगों से! 

 अगली सुबह हम मॉरिशस की भौगोलिक-सामजिक यात्रा पर निकल पड़े। भारतीय मूल के टैक्सी चालक को बताया कि हम ग्रामीण इलाके का दौरा करना चाहते हैं। मॉरिशस के गाँव भारत के अभावग्रस्त गाँव की तरह नहीं- टूटी-फूटी सड़कें और गन्दगी के भंडार देखने को नहीं मिलें । हमारी टैक्सी चल रही थी पक्की सड़क पर-दोनों तरफ चहारदीवारी से घिरे पक्के मकान, जिनके आँगन में झाँक कर देखने पर तुलसी के पौधे-चबूतरे और हनुमान की मूर्ति दीख जाती। गांव से बाहर निकलते ही सिर्फ एक स्थान पर कूड़े का ढेर दिखाई पड़ा, जिसके बारे में टैक्सी चालक ने बताया कि कुछ लोग कचरे का ढेर गाँव के बाहर छोड़ जाते हैं ताकि कचरे की गाड़ी उसे उठा ले जाएगी। थोड़ी दूर जाने पर हमारी टैक्सी गन्ने के विशाल कृषि क्षेत्र से गुजरने लगी। आज भी मॉरिशस की अर्थव्यवस्था पर पश्चिमी देशों, खास तौर पर फ़्रांस का अत्यधिक प्रभाव है। कृषि क्षेत्र का बड़ा हिस्सा पश्चिमी देशों में रह रहे मॉरिशस वासियों और अन्य लोगों के हाथ में है। मॉरिशस में जिस विदेशी मुद्रा का अत्यधिक चलन है, वह डॉलर नहीं, यूरो है। गन्ने के खेतों से गुजरते हुए ग्रामीण माहौल की झलक प्राप्त करने के थोड़ी ही देर बाद हम मॉरिशस के प्राकृतिक सौंदर्य से परिपूर्ण प्रदेश में पहुंचे जहाँ, पर्वतों से आकर घाटी में प्रवेश करने वाले जल प्रपात, घने जंगल और उनमें रहने वाले प्राणियों के दर्शन हुए।चामरेल जल प्रपात इस इलाके का सर्वाधिक दर्शनीय स्थल है। बड़ी सावधानी से इस इलाके को संवारा गया है, वहां ऐसा लगता है, जैसे उनके मार्ग को किसी बाग़ के माली ने साफ़ सुथरा बनाया हो। जल प्रपात की दो धाराएं  पहाड़ी से 321 फ़ीट नीचे खाई में गिरती हैं। पर्यटक खाई के उस पार से झरने के निरन्तर प्रवाह का दृश्य देख सकते हैं। जल धाराएं नीचे जहाँ एकत्र होती हैं, वह स्थान तो दिखाई नहीं पड़ा, लेकिन बताते हैं कि वहां एक सुन्दर तालाब बन गया है जहाँ पहुंचना अपने आप में साहसिक कार्य है। चामरेल वन के पास ही एक अद्भुत मैदान है जहाँ करोड़ों वर्षों से कोई पौधा न उगा, न उग सकता है। 'इंद्रधनुषी मैदान' के नाम से  परिभाषित इस भूभाग की मिट्टी सात रंगों की है। इस मिट्टी की वैज्ञानिक जांच के बाद पता चला कि करोड़ों वर्ष पूर्व वहां ज्वालामुखी का लावा फ़ैल गया था जो ठंडा होने के बाद सात से अधिक रंगों में बिखर गया। इस मैदान को सूर्योदय की किरणों के प्रकाश में देखने का अद्भुत आनंद लिया जा सकता है, हालां कि हम दोपहर में वहां पहुंचे थे, जब सभी रंगों की परछाईं देखने को नहीं मिली। 

अतीत और वर्तमान 

मॉरीशस की राजधानी पोर्ट लुई के आधुनिक बाजार में घूमते हुए यह अहसास मन में बैठ जाता है कि मॉरीशस वासियों ने अपने अतीत को संजो कर रखा है, चाहे वह आप्रवासी घाट हो, गिरमिटिया माई की अश्रुपूर्ण प्रतिमा हो, या उस झोपड़े की प्रतिकृति हो जो कि महात्मा गांधी संस्थान के संग्रहालय में सुरक्षित है। दशकों पूर्व बिहार के गाँव में पैदा हो कर उस वातावरण से बचपन में ही अलग हो गया था, गिरमिटिया माई की प्रतिमा आज बचपन की अनेक स्मृतियों को ताज़ा करती है । ऐसा लगा जैसे अभाव और सादगी की तस्वीर दो शताब्दी पुरानी ना हो कर आज की है । 

​पर्यटकों के लिए ​पोर्ट लुई का आप्रवासी घाट न सिर्फ बिहार, उत्तर प्रदेश से एक पराए द्वीप में आए ग्रामीणों के  आगमन की स्मृतियों काप्रतीक है, बल्कि वह मानवता के इतिहास का महत्वपूर्ण अध्याय​ भी संजोये हुए है जब कि सन 1834 में ब्रिटिश सरकार ने दासता समाप्त करने के नाम पर करीब पांच लाख बंधुआ मज़दूरों को ​मुख्यतः भारत से मॉरीशस द्वीप में बसाने का कार्य प्रारम्भ किया, जिसका एकमात्र उद्देश्य गन्ना की उपज बढ़ा कर अन्य देशों में भेजने का व्यवसाय विकसित करना और एक नई अर्थव्यवस्था को जन्म देना था। 1834 से 1920 तक भारतीय मज़दूरों से करारनामे पर हस्ताक्षर करा कर मॉरिशस ला कर 'एक महान आर्थिक प्रयोग़' के अंतर्गत उन्हें 'गुलाम' न कह कर 'गिरमिटिया मज़दूर' कहा गया। मानव इतिहास में विस्थापन की यह अद्भुत  घटना थी जिसमें मज़दूरों को बिना वेतन कार्य करने के लिए भारत से मॉरीशस, ऑस्ट्रेलिया, अफ्रीका और कैरिबियन देशों में  भेजा गया। पोर्ट लुई का आप्रवासी घाट आज उन्हीं मज़दूरों की कहानी कहता है जिन्होंने डेढ़ शताब्दी तक मेहनत-मज़दूरी कर न सिर्फ अपनी संस्कृति को बचाये रखा, वरन अपनी कार्यभूमि 'मॉरिशस' को एक सुशिक्षित और संपन्न राष्ट्र के रूप में विकसित किया।1865 की चौदह सीढ़ियां, जिन्हें चढ़ कर 'गिरमिटिया' मज़दूर मॉरिशस की धरती पर आये, आज भी सुरक्षित हैं। यूनेस्को के विश्व विरासत केंद्र के रूप में मान्यता प्राप्त अप्रवासी घाट एक आधुनिक संग्रहालय के रूप में विकसित किया गया है जिसमें घाट की मौलिकता को बरक़रार रखते हुए आप्रवासियों के जीवन के अनेक पहलुओं को चित्रित और पुनर्जीवित किया गया है। जिस पानी के जहाज़ से वे आये उसकी प्रतिकृति, स्त्री-पुरुषों के लिए रहने के स्थान, खाने-पीने का दृश्य, रसोई के बर्तन आदि उनके जीवन को साक्षात प्रस्तुत करते हैं। घाट पर भी मज़दूरों के आगमन के समय की इमारतों के अवशेष-निवास, स्नान, अस्पताल आदि सुरक्षित हैं। संग्रहालय में स्नान घर और फ़िर अपने अपने गाँव की तरफ़ जाने के लिए वाहनों की प्रतीक्षा के लिए बनाए स्थान आज भी ​180​ वर्ष पूर्व की उस यात्रा की याद दिलाते हैं, जिसे अमिताव घोष ने अपनी पुस्तक 'सी ऑफ़ पपीज़' (अफ़ीम का सागर) में वर्णित किया है । आप्रवासी घाट के आधुनिक संग्रहालय में उन दिनों की झोपड़ियाँ, रसोई, स्नानघर,  जिनमें आठ- आठ मज़दूर गुज़ारा करते थे, खाना पकाते थे, और गन्ने की खेतों में काम करते थे, सब की प्रतिकृति संग्रहित है । इतिहास को याद रखने की परम्परा किसी भी समाज को न सिर्फ जीवंत रखती है बल्कि उसे सशक्त भी बनती है। सन 2014 में मॉरिशस ने आप्रवासी अतीत की डेढ़ सौवीं बरसी मनाई, तब शायद यह भावना हर मॉरीशस वासी के मन भी प्रबल रही होगी कि उन्हें और मज़बूत बनाना है। वे अतीत के प्रति सजग हैं, शर्मिंदा नहीं। महिलाओं में बिहार के भोजपुर इलाके की औरतों की तरह मांग में लम्बा सिन्दूर का टीका लगाना,  पल्लू से माथे को ढकना आदि परंपरागत आदतें उन्हें आधुनिकता से दूर नहीं रखतीं, न ही रेडियो, टेलीविज़न पर भोजपुरी कार्यक्रमों की रोचकता में लीन हो जाने के प्रति कोई हिचक। मॉरीशस में आधुनिक बाज़ार, शॉपिंग माल वहां के समाज को आधुनिक भौतिकवाद से दूर नहीं रखते।  

​मॉरिशस की यात्रा डोडो की चर्चा के बिना अधूरी रहेगी। यह पक्षी ​मॉरिशस की पहचान है, जैसे कि भारत का मयूर पक्षी। 1507 में पुर्तगाल के नाविकों ने इस पक्षी को देखा था, जिसके बाद से समुद्री यात्रा पर निकले पश्चिम के विभिन्न देशों के खोजी नाविक डोडो को अपना शिकार बनाते रहे। शायद उड़ने की अपनी अक्षमता के कारण डोडो सन 1681 तक लुप्त हो गया​, नाविक उसे आसानी से मार कर अपने भूख मिटाते ​रहे। ​आज विश्व के अनेक संग्रहालयों में डोडो के सर और पाँव संग्रहित किये गए हैं, लेकिन मॉरिशस की सांस्कृतिक विरासत में 23 किलोग्राम का यह पक्षी अमर है। ​लकड़ी या धातुओं में बनी ​उसकी प्रतिकृतियां पर्यटकों के लिए यादगार के रूप में​ द्वीप की दूकानों में उपलब्ध हैं।  

​मॉरिशस के वासी कई मामलों में सृजनशील हैं। भारतीय मूल के लोगों के लिए गंगा का विशेष महत्त्व है। राम चरित मानस और हनुमान चालीसा की प्रतियां साथ लेकर आने वाले भारतवंशी गंगा तो अपने साथ ला नहीं सकते थे,वे  गंगाजल लेकर ज़रूर आये और अपने तालाब को गंगाजल से शुद्ध किया। 'गंगा तलाव' भारतीय मूल के लोगों की धार्मिक और आध्यात्मिक आस्था को परिलक्षित करने का एक जीता जागता श्रोत बन चुका है, जहाँ अनेक हिन्दू देवी-देवताओं की आदम कद प्रतिमाएं यात्रियों को हिंदुत्व का सन्देश देती हैं। प्रतिवर्ष महा शिवरात्रि के समय मीलों सफर कर मॉरिशस वासी गंगा तालाब पहुँचते हैं, अपनी आस्था को पुनः परिभाषित करने।  

​साठ के दशक में आज़ादी प्राप्त करने के बाद भारत के साथ भाईचारे का सम्बन्ध बनाना मॉरिशस के लिए स्वाभाविक था। भारत के लिए भी अपने विदेशी निवेश का लगभग 42 प्रतिशत मॉरिशस में लगाना स्वभावित और व्यावहारिक था। सातवें दशक से ही मॉरिशस के विद्यार्थी भारत आने लगे थे, जिनमें से कई आज भी मेरे मित्र हैं। भारत और मॉरिशस की मैत्री हिंदी भाषा के शिक्षण और उसके प्रचार-प्रसार में सहायक हो रही है। मोका स्थित महात्मा गाँधी संस्थान अपने हिंदी शिक्षण की गुणवत्ता के लिए जाना जाता है। महात्मा गाँधी संस्थान के अनेक हिंदी प्राध्यापकों के लिए से हिंदी मॉरिशस की भाषा है! संस्थान ने एक और महत्वपूर्ण कार्य किया है-'गिरमिटिया मजदूरों का संग्रहालय' बनाने का। यह संग्रहालय मॉरिशस की दो तिहाई आबादी​ के पूर्वजों का ही ​इतिहास नहीं, समस्त राष्ट्र के लिए प्रेरणाश्रोत है।  

लगभग एक सप्ताह बाद मॉरिशस के प्राकृतिक सौंदर्य का अनुभव की ताजगी और वहां के इतिहास से सराबोर होकर जब चलने की बारी आये, तो होटल के सभी वरिष्ठ अधिकारी मुख्य द्वार तक छोड़ने आये।होटल की लॉबी में याद के तौर पर हमने कुछ स्मृतियाँ संजोयीं और विमान स्थल की तरफ रवाना हो गए।

( विश्व हिंदी सचिवालय, मॉरीशस द्वारा सन 2019 में पुरष्कृत यह यात्रा संस्मरण 'नया ज्ञानोदय' के मार्च 2019 अंक में प्रकाशित हुआ।)