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विशाखापत्तनम में चतुर्थ अंतरराष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन: हिंदी शिक्षण की नई दिशा

विशाखापत्तनम में चतुर्थ अंतरराष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन: हिंदी शिक्षण की नई दिशा

अशोक ओझा

गत 6 से 8 जनवरी के दौरान विशाखापत्तनम के गीतम विश्वविद्यालय में संपन्न अंतरराष्ट्रीय हिंदी सम्मलेन अनेक कारणों से महत्वपूर्ण रहा। भारत और भारत के बाहर से आए सैकड़ों भाषाविदों और शिक्षार्थियों ने गैर हिंदी क्षेर्त्रों में हिंदी शिक्षण के प्रचार-प्रसार की चुनौतियों पर न सिर्फ चर्चाएं कीं, बल्कि यह प्रमाणित किया कि वर्तमान युग में हिंदी संचार और साहित्य के अलावा विज्ञान, तकनिकी और प्रौद्योगिकी की शिक्षा का माध्यम बनने में सक्षम है। एक तरफ भाषा विशेषज्ञों ने उत्तर और दक्षिण भारत के विभिन्न संस्थानों के दो सौ से अधिक हिंदी शोध छात्र-छात्राओं को सेमिनार और गोष्ठियों के दौरान आधुनिक पद्धतियों द्वारा अपनी शिक्षण क्षमता प्रखर बनाने के लिए नई शैली विकसित करने का मार्ग दिखाया,  दूसरी तरफ विद्यालयों में कार्यरत शिक्षकों ने अपने अनुभव साझा करते हुए हिंदी शिक्षण को परंपरागत शिक्षा पद्धति से अलग कर दैनिक जीवन की वस्तावकिताओं के समीप लाने पर जोर दिया। चूँकि जीवन के अधिकांश कार्य इन्टरनेट और मोबाइल उपकरणों द्वारा सम्पन कराये जा रहे हैं, हिंदी अध्यापकों को इन उपकरणों के प्रयोग से अलग नहीं किया जा सकता। अगर हिंदी कक्षा में टेक्नोलॉजी, खास तौर पर स्मार्ट फ़ोन, आई-पैड जैसे वाई-फाई युक्त मोबाइल उपकरण सुलभ कराए जाएँ तो विद्यार्थियों का अंतर्वैयक्तिक संवाद बढ़ेगा,जिसके कारण उन्हें विषय संबंधी ज्ञान प्राप्त करने में सहजता होगी। 

सम्मेलन में ​यह बात उभर कर सामने आयी कि हिंदी शिक्षण को वर्तमान डिजिटल युग की आवश्यकताओं के अनुरूप बदलना ज़रूरी है। साथ ही हिंदी पाठ्यक्रमों में अन्य विधाओं की सामग्री का समावेश कर विद्यार्थियों को वर्तमान युग की चुनौतियों का सामना करने और उसका समाधान ढूंढ़ने के लिए प्रेरित करना चाहिए।  दूसरे शब्दों में भाषा की शिक्षा उद्देश्यपरक होनी चाहिए। आज की नयी पीढ़ी को, जो विभिन्न विधाओं में शिक्षा ग्रहण कर रही है, आधुनिक संसाधनों के जरिए शिक्षित किया जाना चाहिए। इक्कीसवीं सदी में दुनिया वैश्विक गाँव के रूप में परिणत हो चुकी है जहाँ शिक्षा का सम्बन्ध सिर्फ एक देश से बंधा नहीं, उसका अंतरराष्ट्रीय स्वरुप विकसित होना आवश्यक है।

सम्मेलन में अमेरिका सहित अनेक देशों के भाषा विशेषज्ञों ने अपने शोध पत्र प्रस्तुत किए, जिनमें यह परिलक्षित हुआ कि विभिन्न देशों में हिंदी शिक्षण की विविध शैलियों का विकास उन देशों के विद्यार्थियों की ज़रूरतों को ध्यान में रख कर किया जाना ज़रूरी है। हिंदी के शैक्षणिक परिप्रेक्ष्य को ध्यान में रख कर भाषा योजना बनायी जानी चाहिए और उसका विस्तार होना चाहिए। इस प्रक्रिया में निर्मित पाठ्यक्रम विद्यार्थियों की ज़रूरतों के अनुरूप होने चाहिए ताकि वे भाषा सीखने का सन्दर्भ जान सकें और पाठ्यक्रम के लक्ष्य की उपयोगिता समझ सकें।​ ​

दुनिया भर में हिंदी शिक्षार्थी अलग अलग कारणों से हिंदी सीख रहे हैं। उनके उद्देश्यों को ध्यान में रख कर ही उनके शिक्षक अपनी पाठ्य सामग्री तैयार करते हैं। कोपेनहेगन (डेनमार्क) से रेने एल्मार ऐसे ही युवा प्राध्यापक ​हैं, जिन्होंने अपने छात्रों की ज़रूरतों को ध्यान में रख कर पाठ्यक्रम विकसित किया है। अमेरिकी विश्विविद्यालयों के हिंदी विभाग अपनी शिक्षण सामग्री इन्टरनेट आधारित तकनीकी संसाधनों, मल्टीमीडिया, विडियो क्लिप आदि की मदद से परिमार्जित कर रहे हैं, ताकि शिक्षार्थी तकनीकी साधनों का प्रयोग कर बोलने, लिखने, और पढ़ने का लक्ष्य शीघ्र प्राप्त कर लें। 
सम्मेलन के प्रमुख सत्र में न्यू जर्सी के ​केन विश्वविद्यालय की प्रोफेसर जेनिस जेनसेन ने अपनी प्रस्तुति में इस बात पर जोर दिया कि आज के युग में हिंदी शिक्षक को वैश्विक स्तर पर हो रहे शैक्षणिक कार्यों से न सिर्फ परिचित होना चाहिए, वरन उन्हें अपने विद्यार्थियों को व्यवहारिक जीवन से जुड़ी परिस्थितियों से अवगत कराना चाहिए, साथ ही वैश्विक चुनौतियों का समाधान ढूंढ़ने के लिए विद्यार्थियों को विभिन्न विधाओं से सम्बंधित सामग्री सुलभ करानी चाहिए, तभी जाकर हिंदी शिक्षक और विद्यार्थी वैश्विक स्तर पर समर्थ साबित हो सकेंगे।
न्यू यॉर्क विश्वविद्यालय में हिंदी-उर्दू पाठ्यक्रमों की संयोजक प्रोफेसर गैब्रिएला निक इलेवा ने, जो कि सम्मेलन की अकादमिक समिति की प्रमुख भी हैं, भाषा विद्यार्थियों को वास्तविक जीवन के उत्तर-चढाव से जुड़ी विषय वस्तु और सूचनाओं का प्रयोग कर पारियोजित शिक्षा देने पर जोर दिया। इस दिशा में फिनिक्स विश्वविद्यालय में हुए शोध का सन्दर्भ प्रस्तुत करते हुए उनका कहना था कि इक्कीसवीं सदी में भाषा शिक्षण का मुख्य लक्ष्य यह होना चाहिए कि शिक्षार्थी परियोजना आधारित पाठ्यक्रम (Project-based learning) के सहारे वर्तमान व्यावहारिक जीवन की चुनौतियों का समाधान प्रस्तुत करें जिनका मूल्यांकन संबंधित विषयों के विशेषज्ञों द्वारा किया जाए। भाषाविदों का विश्वास है कि इस पद्धति से दी जाने वाली शिक्षा अर्थपूर्ण और कारगर साबित होगी। 

सम्मेलन में वेनिस (इटली) से पधारी प्रोफेसर श्यामा मेढेकर, फ़िलेडैल्फ़िया (पेनसिलवेनिया) के पेन स्टेट विश्वविद्यालय की ऋतू जयकर, ड्यूक विश्वविद्यालय की कुसुम नापजिक आदि प्रधापिकाओं ने हिंदी सिखाने के अनुभव प्रस्तुत किये जिन्हें सम्मेलन में भाग ले रहे प्रतिनिधियों ने सराहा।  मॉरिशस के गुलशन सुखलाल उन प्राध्यापकों में से थे जिन्होंने यह प्रमाणित किया कि हिंदी को भारत की भौगोलिक परिधि में बाँध कर रखने के दिन लद चुके, उसके साथ विश्व भाषा की तरह सलूक किया जाना चाहिए। गुलशन जैसे युवा प्राध्यापक,जो मानते हैं कि हिंदी मॉरिशस की मातृभाषा भाषा है, उसे भारत से निर्यातित कर वहां नहीं लाया गया, हिंदी के वास्तविक सामर्थ्य को दुनिया के सामने प्रस्तुत करने में समर्थ होंगे। उत्तर पूर्व में हिंदी का विस्तार उस क्षेत्र की सामाजिक-सांस्कृतिक पृष्ठभूमि को ध्यान में रख कर ही किया जा सकता है, इस तथ्य को सम्मेलन में प्रस्तुत करने का कार्य शिलांग से पधारे पर्वतीय विश्वविद्यालय के हिंदी प्राध्यापक प्रोफेसर मानवेन्द्र पाण्डे ने किया। 

भारत के शिक्षार्थियों को लक्ष्य रख कर सम्मेलन के विभिन्न सत्रों में पाठ्यक्रम निर्माण के अनेक पहलुओं पर चर्चा हुई। विशाखापत्तनम में दक्षिण भारत के अनेक विद्यालयों और महाविद्यालयों के अध्यापकों ने हिंदी शिक्षण के शैलियों पर प्रस्तुतियां दीं। आंध्र प्रदेश के ऋषि वैली स्कूल में वर्षों से हिंदी अध्यापन कर रहीं प्राध्यापिका डॉ चन्द्रिका माथुर ने दक्षता की तीन श्रेणियों-प्राथमिक, माध्यमिक और अग्रिम स्तर- के विद्यार्थियों को हिंदी सिखाने की अपने शैली पर चर्चा करते हुए विद्यार्थियों द्वारा पाठ्यक्रम सम्बंधित निष्पादित कार्यों का आकलन, मूल्यांकन, और परावर्तन (reflection) के विभिन चरणों को पूरा करने की आवश्यकता पर बल दिया। यह पद्धति हिंदी भाषी और गैर हिंदी भाषी दोनों प्रकार के विद्यार्थियों के लिए बनायी जाने वाली शिक्षा पद्धति पर लागू होती है। इसी प्रकार विशाखापत्तनम नौसेना विद्यालय की तीन अधपिकाओं, डॉ. दुर्गा शारदा, डॉ मनीषा सिंह चौहान, और सोनल लहरिया ने पाठ्यक्रम निर्माण में सांस्कृतिक गतिविधियों को कक्षाओं में शामिल कर हिंदी शिक्षण का लक्ष्य निर्धारित करने पर जोर दिया। शिकागो में बाल-शिक्षण के लिए सक्रिय विद्या नाहर ने ​ध्वनि-सूत्र (voice-thread) नामक इन्टरनेट आधारित पद्धति के जरिए शिक्षार्थियों की हिंदी सम्प्रेषण की क्षमता को बढ़ाने के तरीके पर प्रकाश डाला। इन्टरनेट की सहायता से पाठ्यक्रम बनाने और मल्टीमीडिया साधनों का प्रयोग कर भाषा शिक्षण को न केवल वर्तमान युग के शिक्षार्थियोंअत्यधिक रुचिकर बना सकते हैं वरन उन्हें निर्धारित समय में बेहतर शिक्षा भी दे सकते हैं। भारत और भारत के बाहर अनेक शिक्षा संस्थानों में हिंदी फिल्मों के साथ यू-ट्यूब और वेब साइट पर उपलब्ध विडियो, चित्रों और विवरणों का प्रयोग कर भाषाई विषय वस्तु की व्यापकता को बढ़ाया जा रहा है। यह हिंदी भाषा में जीवन से जुड़ी स्तरीय सामग्री का जितना विस्तार होगा, हिंदी शिक्षकों को पाठ्यक्रम बनाने के लिए विविध किस्मों की प्रामाणिक सामग्री उपलब्ध हो सकेगी। भाषा-विशेज्ञों ने इस बात पर अत्यधिक जोर दिया है कि हिंदी शिक्षण को प्रामाणिक सामग्री मूल भाषाई सन्दर्भ में ही निर्मित हो सकती है। यह सामग्री शिक्षा के उद्देश्य से तैयार न की गयी हो, तभी उसे प्रामाणिक सामग्री कह सकते हैं।  इस प्रकार अमेरिका में हिंदी शिक्षण के लिए प्रामाणिक सामग्री ढूंढते हुए यह ध्यान रखना ज़रूरी है कि उसका निर्माण भारत में हुआ हो। भाषा और साहित्य के अलावा राजनीति, विधि और न्याय, चिकित्सा, इंजीनियरिंग, वाणिज्य-व्यापर आदि क्षेत्रों में हिंदी के प्रयोग इसीलिए आवश्यक है कि शिक्षार्थियों को उन विधाओं का ज्ञान अपनी भाषा में प्राप्त होगा तो वे विद्यार्थी अपनी सम्प्रेषण क्षमता को परिष्कृत करने के लिए अंग्रेजी पर निर्भर नहीं रहेंगे, न ही हिंदी को भाषा और साहित्य इतर विधाओं की समझ पाने के लिए असमर्थ भाषा के रूप में देखेंगे।

सम्मेलन की अनेक उपलब्धियों में एक यह है कि गीतम विश्वविद्यालय, जिसकी स्थापना महात्मा गाँधी के आदर्शों पर आधारित है, हिंदी भाषा के पाठ्यक्रम शुरू कर रहा है। विश्वविद्यालय सूचना प्राद्योगिकी और प्रबंधन की शिक्षा के लिए प्रसिद्ध है, लेकिन गाँधी के आदर्शों के अनुरूप हिंदी को संवाद और सम्प्रेषण की भाषा के रूप में अपनाने को तैयार है। विश्वविद्यालय की कुलपति प्रोफेसर के रामकृष्णा राव ने आंध्र प्रदेश के शिक्षा मंत्री जी श्रीनिवास राव की उपस्थिति में कहा कि उनके प्रदेश की भाषा नीति में हिंदी शिक्षा की अनिवार्यता आवश्यक है। आन्ध्र प्रदेश को देश की मुख्य धारा से जोड़े रखने के लिए प्रदेश में हिंदी शिक्षण अनिवार्य करना वर्तमान समय की माँग है ।

विशाखापत्तनम के सांसद डॉक्टर के हरि बाबू सम्मेलन के समापन समारोह में मुख्य अतिथि थे, जिनकी उपस्थिति में सर्वसम्मति से प्रस्ताव पारित हुआ कि भारतीय प्रवासी संसार में हिंदी पठन-पाठन को सुदृढ़ करने के लिए न्यू यॉर्क क्षेत्र में हिंदी केंद्र की स्थापना के लिए भारत सरकार को हिंदी संगम फ़ाउंडेशन के साथ सहयोग करना चाहिए। डॉ हरि बाबू ने इस प्रस्ताव को भारत सरकार के समक्ष प्रस्तुत करने का वचन दिया। दर असल विगत सम्मेलनों में भी इसी आशय के प्रस्ताव पारित हो चुके हैं। यही नहीं, मरिशस में २०१४ में सम्पन्न अंतर राष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन में भी अमेरिका में हिंदी केंद्र स्थापित करने के प्रस्ताव को सर्वसम्मति से स्वीकार किया गया था। इस केंद्र का यह लाभ यह होगा कि समस्त पश्चिमी गोलार्ध में हिंदी शिक्षण की प्रक्रिया सुदृढ़ करने का कार्य किया जा सकता है। 

​यह सफल सम्मेलन​ हिंदी संगम फ़ाउंडेशन, न्यू जर्सी, के उन प्रयासों का प्रतिफल था, जिसका प्रारम्भ सन २०१४ में न्यू यॉर्क विश्वविद्यालय के प्रांगण में हुआ था। फ़ाउंडेशन की स्थापना इसी उद्देश्य से हुई कि प्रवासी भारतीय समुदाय को भाषाविदों और शिक्षार्थियों के साथ रु-ब-रु किया जाय ताकि नई पीढ़ी को हिंदी शिक्षा प्रदान करने के सम्बंध में सामूहिक सहमति पैदा की जा सके।

न्यू यॉर्क से विशाखापत्तनम का सफ़र हिंदी को अंतरराष्ट्रीय पटल पर न सिर्फ़ स्थापित करने का प्रयास था, वरन, भारतीय शिक्षा नीति निर्धारकों को यह समझाने का उपक्रम था कि हिंदी उत्तर भारत की मातृभाषा ही नहीं, वह भारत और भारत के बाहर हिंदी प्रवासी संसार और उन तमाम शिक्षार्थियों, शोधार्थियों की भाषा है, जिन्हें भारतीय संस्कृति को समझने और उसके प्रति भारी जिज्ञासा है । इन हिंदी समर्थकों में ग़ैर भारतीय मूल के अनगिनत शिक्षार्थी शामिल हैं।

​ विशाखापत्तनम में हिंदी सम्मेलन के आयोजन के मुख्य प्रवर्तक पद्म भूषण डॉ यारलागड्डा लक्ष्मी प्रसाद के प्रयासों का जिक्र आवश्यक है, जिन्होंने न केवल गीतम विश्वविद्यालय बल्कि आंध्र प्रदेश के शासन तंत्र को भी हिंदी की तरफ मुड़ने के लिए बाध्य किया। भारत में हिंदी शिक्षार्थियों को दो वर्गों में वर्गीकृत किया जा सकता है। एक तो वे जिनकी मातृभाषा हिंदी है और दूसरे वे जिनकी मातृभाषा हिंदी के इतर कोई अन्य भाषा है। अमेरिकन कौंसिल फॉर टीचिंग फॉरेन लैंग्वेज के मापदंड के अनुसार इन विद्यार्थियों को विरासत और गैर विरासत विद्यार्थी के दो खेमों में वर्गीकृत किया गया है। दोनों प्रकार के विद्यार्थियों को हिंदी पढ़ाने की पद्धति में भिन्नता होनी चाहिए। इसके लिए कौंसिल ने दक्षता (proficiency) और निष्पादन (performance) के मापदंड तैयार किये हैं। इन मापदंडो का प्रयोग पाठ्यक्रम निर्माण के लिए किया जाता है। दिलचस्प बात यह है कि अमेरिका में हिंदी एक प्रमुख विदेशी भाषा के रूप में प्रतिष्ठित है, जिसकी शिक्षा प्राप्त करने वाले शिक्षार्थी हिंदी को विदेशी भाषा के रूप में सीख रहे हैं और विरासत भाषा के रूप में भी। भाषा शिक्षण की यह विविधता शिक्षकों के लिए एक बड़ी चुनौती बन कर खड़ी हो जाती है, क्यों कि पाठ्यक्रम तैयार करने की उनकी क्षमता शिक्षार्थियों के भाषाई और सांस्कृतिक ज्ञान की पृष्ठभूमि पर आधारित होनी चाहिए। कोलंबिया विश्वविद्यालय के प्रोफसर राकेश रंजन ने अमेरिका में हिंदी शिक्षण की विविध पद्धतियों का उल्लेख भी किया जो विभिन्न आयु वर्ग और दक्षता स्तर वाले शिक्षार्थियों को लक्ष्य मान कर तैयार किये गए हैं। ​